पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग कुछ ऐसे कहते हैं – “यह और सब जगह ठीक है लेकिन यहाँ नहीं, यह पश्चिम उत्तर परदेस है, समझे?”
जब ऐसी दबंगियत हो भाषा में, जहां रैपर सिद्धू मूसे वाला के गाने लोगों को लगातार एके 47 लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, तो आप उम्मीद करते हैं कि राजनीति भी पुरुषार्थ और अति पुरुक्षरर्थ से भरी होगी। और आक्रमक भी। इस तरह कैराना आधुनिक भारतीय राजनीतिक छवि में प्रवेश कर गया है। पिछले चुनावों में ध्रुवीकरण की कोशिश में भाजपा नेता हुकुम सिंह ने झूठी अफवाह फैलाई थी कि कैराना में मुसलमान कट्टर हैं और बड़ी संख्या में हिंदुओं को वहां से जाने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
जब प्रधान मंत्री मोदी अपना पहला चुनाव जीतने के करीब थे तब ‘ हिंदू ख़तरे में हैं ‘ बीजेपी के इस युद्धघोष ने इस लोकसभा सीट को काफी प्रभावित किया था । सितंबर 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर-शामली दंगों में इस कैराना लोकसभा सीट का ज़्यादातर हिस्सा शामिल था । इसकी शुरुआत एक मुस्लिम लड़के शाहनवाज़ की हत्या से हुई थी और फिर बदले में जाट समुदाय के दो हिंदू लड़कों की हत्या कर दी गई थी। सांप्रदायिक ज्वाला भड़क उठी और पूरे उत्तर प्रदेश में विविध और प्रतिद्वंद्वी जातियों के हिंदुओं से एक आम दुश्मन – मुस्लिम – के खिलाफ एक साथ आने के आह्वान में बदल गई। यह तूफान भजपा के लिए काफ़ी फायदेमंद साबित हुआ और अंततः इसने मोदी को ‘ प्रधान मंत्री मोदी ‘ बनने में मदद की।
तब से कैराना का राजनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान हो गया है । दरअसल, 1962 से, जिस वर्ष यह निर्वाचन क्षेत्र अस्तित्व में आया था, गायत्री देवी, अनुराधा चौधरी और तबस्सुम खान जैसी महिलाएं यहां से लोकसभा सदस्य चुनी जाती रही हैं। इस अवधि में कुल मिलाकर 15 लोकसभा चुनाव हुए हैं।
सामाजिक और राजनीतिक विचार – विमर्श, हिन्दू पुरुषों द्वारा हिन्दू पुरुषों को यह बताने के इर्द-गिर्द सीमित है कि क्या सोचना है और क्या करना है । महिलाएं ज्यादातर इसका अनुपालन करती हैं क्योंकि हिंदू महिलाएं घूंघट करती हैं और घर के अंदर रहती हैं, ज्यादातर मिट्टी के चूल्हे पर झुककर हाथ से रोटियां बनाती हुई । इस प्रक्रिया में वे झुलस जाती हैं। मुस्लिम महिलाएं भी ऐसा ही करती हैं, घूंघट की जगह बुर्का पहनती हैं…
इस क्षेत्र में इकरा हसन एक युवा मुस्लिम महिला उम्मीदवार के रूप में बहुत अधिक प्रभाव डाल रही हैं । कोई आक्रामकता नहीं, रौबदार महिला नहीं, बल्कि एक सौम्य, सम्मानजनक 29 वर्षीय महिला । लेकिन कैराना है ही पश्चिम उत्तर प्रदेश का एक अजूबा। जैसे आप अनुमान लगा लेते हैं की हाँ पकड़ में आ गया, यहाँ सब ऐसे ही होता है, तो इसका उलट हो जाता है और आप फिर से अचमबे रह जाते हैं जाने बिना की इस जगह का रहस्य है क्या।
29 वर्षीय इकरा हसन संयोग से एक क्रन्तिकारी बन गईं । लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज से राजनीति और कानून में एमए की पढ़ाई पूरी करने के बाद भाग्य उन्हें वापस भारत ले आया । कोरोना के कारण वह अपने परिवार के पास कैराना वापस आई थी और उन्हें बाद में पीएचडी के लिए लंदन वापस लौटना था। उनके भाई नाहिद, जिसने लगातार दो विधानसभा चुनाव लड़े और जीते थे, को तीसरा चुनाव जीतने के ठीक पहले गिरफ्तार कर लिया गया था। नाहिद वास्तव में एक भाजपा विरोधी नेता थे, जो क्षेत्र के अधिकांश अन्य बाहुबली राजनेताओं की तरह ही थे।
आप कह सकते हैं कि इकरा भी अपने भाई की तरह जन्म से ही राजनीति के सांचे में ढल गई थी। इकरा एक सामंती, राजनीतिक परिवार से आती है, जिसके पास पीढ़ियों से ज़मीन-जायदाद और विशेषाधिकार हैं। वह इस क्षेत्र की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली जातियों में से एक – (मुस्लिम) गुज्जर से आती है। उनके माता-पिता दोनों सांसद रहे हैं। उनकी मां तबस्सुम हसन ने 2019 में बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और भाजपा के प्रदीप चौधरी से 90,000 वोटों से हार गईं। इसलिए जब उसके भाई को गिरफ्तार किया गया तो इकरा के लिए अपने भाई की मदद के लिए आगे आना स्वाभाविक था।
2022 में उसके भाई की गिरफ्तारी के समय ऐसा लग रहा था कि कुछ रोमांचक घटित होने जा रहा है जिसे पूरी तरह से नस्लीय? (नसली ) नहीं कहा जा सकता है। इस बीच इकरा भाई के चुनाव में तब कूद पड़ी जब पूरे कैराने में बात कुछ ऐसे चल रही थी, कोरोना के चलते। की आखिर मुसलमानों नें कोरोना फैलाने का काम किया है । यहाँ महामारी में मुस्लिम फल विक्रेताओं को घरों के आसपास आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। हिन्दू कह रहे थे, “वे सेबों पर अपने थूक से चिपकाकर स्टिकर लगाते हैं और इस तरह से कोविड फैलता है। “
और इस बीच इकरा, एक मुस्लिम महिला हो कर भी घर-घर जा रही थी। वह अपने लिए वोट नहीं मांग रही थीं, बल्कि हत्या के प्रयास, गुंडागर्दी और कई अन्य आपराधिक आरोपों में जेल में बंद अपने भाई के लिए वोट मांग रही थीं। दरअसल, क्षेत्र के कई हिंदुओं को लगता है कि ज्यादातर मुस्लिम पुरुष यही करते हैं।
पता नहीं यह उसके चेहरे की गंभीरता थी या उन्माद रहित उसकी आवाज़ थी लेकिन इकरा ने अपने भाई को 25,000 वोटों के अंतर से सीट जिता दी। तभी से ऐसा लगने लगा था कि वह 2024 के लोकसभा में विपक्ष की पसंददीदा उम्मीदवार बनने जा रही हैं।
लेकिन इस चुनाव में पूरे उत्तर प्रदेश में किसी भी संसदीय क्षेत्र में विपक्षी पार्टियों का शोर नहीं सुनाई दे रहा है। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के पक्ष में हिंदुत्व ताकतों और भाजपा सहयोगियों के व्यापक अभियान के सामने विपक्ष की चुप्पी निराश कर देने वाली है। इस साल जनवरी में, RSS और हिंदू सहयोगी प्रत्येक गांव में हर घर में गए और भगवा चावल और राम की तस्वीरें बांटीं, जिससे राम मंदिर के उद्घाटन को राष्ट्र के प्रति वफादारी की परीक्षा में बदल दिया गया। पूरे उत्तर प्रदेश में, दुकानों, सड़कों और पूरे हिंदू क्षितिज पर भगवा रंग के झंडे छा गए । इसका उद्देश्य चुनाव के बारे में किसी भी बातचीत को व्यावहारिक रूप से बेअसर करना था । जब दूसरी तरफ देखने या सुनने को कुछ है ही नहीं तो बात करने के लिए क्या रह जाता है?
यानि इस चुनाव में इस बड़े स्तर के प्रदर्शन के सामने एक अकेले इंसान की कोई महत्व हो ही नहीं सकती, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। सत्तारूढ़ भाजपा ने उसी उम्मीदवार को मैदान में उतारा जिसने पिछले चुनाव में इकरा की मां को हराया था। पांच साल पहले, इस आदमी – प्रदीप चौधरी ने अंसारी जाति के माली शादाब (बदला हुआ नाम) जैसे कुछ ओबीसी मुसलमानों के वोट पाकर असंभव को हासिल कर लिया था। शादाब उम्मीदवार से उतना प्रभावित नहीं थे जितना मोदी से प्रभावित। इन हिस्सों में मोदी का इतना आकर्षण है कि शादाब ने भी विधानसभा चुनाव में इकरा के भाई के खिलाफ मतदान किया और भाजपा के प्रति वफादार रहे। उन्होंने कहा कि उन्हें यह बात पसंद आई कि पार्टी ने गुंडों पर कार्रवाई की, भले ही वे मुस्लिम हों।
लेकिन इस बार शादाब ने कुछ उल्टा ही बताया अपने रुझान – कहा, उसका पूरा गांव – मलकपुर, इकरा के समर्थन में है, “अगर उसका भाई या माँ चुनाव लड़ रही होती, तो मेरा मत भाजपा के लिए जाता। लेकिन इकरा अलग है, उसकी बड़ी-बड़ी काजल-युक्त आँखों में चमक है और वह गरीबों के प्रति सहानुभूति रखती है।”
शादाब के शब्दों को रशीदगढ़ के युवा मनोज सैनी (बदला हुआ नाम) ने भी दोहराया। मनोज भाजपा और उसकी अधिक उग्र बाहुबल वाली शाखा – बजरंग दल – का सदस्य है। उसने कहा, “इस बार, मैं उस आदमी – प्रदीप चौधरी – को वोट नहीं देना चाहता। उसके पास हमसे मिलने का समय नहीं है । मुझे इक़रा पसंद है । मैं मोदी से प्यार करता हूं लेकिन मुझे इकरा भी पसंद है।” अगर यह रुझान आपको पगला रही है तो वो बिल्कुल ठीक क्यूंकि यहाँ पर लॉजिक यानि तर्क कम और जसबात सब कुछ है। यदि आपके गौरव को ठेस पहुंची है, तो आपके भूलने या माफ करने की संभावना नहीं है।
अब आते हैं वर्तमान की उलट फेर पर। इकरा के समर्थन में चुनावी रैली में भारी भरकम भीड़। और सारे के सारे पुरुष थे क्योंकि महिलाएं सार्वजनिक रूप से बाहर नहीं निकलती थीं। मंच पर, ग्राम प्रधानों-सरपंचों का एक समूह इकट्ठा हुआ । इन सभी सरपंचों ने घासीपुरा गांव में दो हजार पुरुषों की भीड़ के सामने घोषणा की कि वे अब तक भाजपा समर्थक थे क्योंकि प्रदीप चौधरी के साथ उनकी दोस्ती थी ।अब उन्हें लगता है कि वह एक ऐसा गुज्जर है जिसने गुज्जरों को निराश किया था। दूसरी ओर, इकरा एक ( मुस्लिम )गुज्जर थी जो सबकी बात सुनती थी और परवाह करती थी। उन्होंने कहा, “हम चाहते हैं कि इस बार आप सभी इक़रा को अपना समर्थन दें।” पुरषों की भीड़ ने मंच पर मौजूद पुरुषों की बातें सुनीं और एक सुर में तालियां बजाईं। एक के बाद एक सरपंच ने मंच संभाला और प्रत्येक ने अपने अंदाज़ में वही दोहराया जो पहले वाले ने कहा था ।
इस कार्यक्रम से अगले कार्यक्रम के लिए जाते हुए रास्ते में, इक़रा के पास बात करने के लिए कुछ समय था। इक़रा ने कहा, “एक अन्य पत्रकार ने मुझे बताया कि जिस तरह से मैं अपना सिर ढकती हूं वह धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए यह हिंदू और मुस्लिम दोनों को पसंद आता है। मैं पूरा पर्दा नहीं करती, बस अपना सिर ढकती हूं, जैसा कि कई हिंदू महिलाएं भी करती हैं। और अपने अभियान के दौरान मैं यह सुनिश्चित करती हूं कि मैं सबसे पहले महिलाओं से उनके घरों में जाकर मिलूं, क्योंकि कोई और ऐसा नहीं करता है और मैं महिलाओं से बेहतर तरीके से जुड़ती हूं।”
ये ऐसी छोटी-छोटी बातें हैं जो बड़े, खर्चीले , ‘ सब – कुछ- मोदी ‘ वाले अभियान में अनदेखी हो सकती हैं । महिलाएं इस बात को बहुत महत्त्व देती हैं कि आप उनके घर में बैठे और उनकी बात सुनी। जाहिर तौर पर बात बन गई।
और जब पुरुषों की बात आती है, तो वे भी इकरा को सुनना चाहते हैं। इकरा की चुनावी रैली में कई गैर-गुर्जर पुरुष सरपंच भी प्रदीप चौधरी का सामूहिक बहिष्कार करके इकरा के पक्ष में अपना समर्थन दे रहे थे – उच्च जाति के ब्राह्मण, अनुसूचित जाति के वाल्मिकी और निश्चित रूप से विभिन्न जातियों के मुसलमान। इक़रा ने ऐसी भावनात्मक निपुणता प्रदर्शित की जिसे हासिल करने में अक्सर उम्मीदवारों को कई वर्ष लग जाते हैं। अगर वह सांसद बन जाती है तो पुरुषों को एक युवा महिला से आदेश लेने होंगे । पुरुषों ने इस बात को पितृसत्ताओं की शान के खिलाफ नहीं समझने का फैसला किया । इक़रा ने मुस्कुराते हुए कहा, ” आपको किसी अभियान में अपने नारीवाद की घोषणा करने की ज़रूरत नहीं है। ” जब उसकी कार की खिड़की को बाहर से बच्चों के एक समूह ने तोड़ दिया तो उन्होंने कहा, “मेरी मां और भाई दोनों कहते हैं कि वे मुझसे डरते हैं। लेकिन मुझे उस पक्ष को जनता के सामने प्रदर्शित नहीं करना है ।” प्रदर्शन से उसका तात्पर्य ‘कार्य‘ या किसी प्रकार का धोखा नहीं था। उनका मतलब एक बेटी और एक बहन, एक सार्वभौमिक बाल-महिला के रूप में अपनी उपस्थिति को रेखांकित करने में सक्षम होना था। जिसे पुरुष पसंद करते हैं क्योंकि वे उसकी उपस्थिति में सहज महसूस करते हैं । चूँकि उन्हें कोई खतरा नहीं है, इसलिए वे उसकी कुशलता और डिग्रियाँ का भी सम्मान करते हैं। मंच पर उनके साथ खड़े इकरा के समर्थकों में से एक ने कहा, “हमें शासन करने की उनकी क्षमता पर भरोसा है, उनके पास दिखाने के लिए लंदन से कानून की प्रतिष्ठित डिग्री है।”
मोदी के प्रशंसक उनके नाम पर यह कहते हुए अभियान वीडियो चला रहे हैं कि उन्हें एक बार फिर शासन करने के लिए ईश्वर की ओर से नियुक्त किया गया है। वहीं इकरा भी एक शर्मीली, आत्म-सम्मानित महिला के रूप में चुनाव के अखाड़े में भगवान के आशीर्वाद वाले कोमल हाथ को अपने सिर पर महसूस करती हैं। वह लोगों से मोदी को नापसंद करने के लिए नहीं कह रही हैं बल्कि बहुत धीरे से, सहजपूर्वक कहती हैं – `इस बार बदलाव के लिए वोट करें।‘ “जैसा कि बड़े, समझदार लोग हमेशा कहते हैं, पानी भी, जब बहुत देर तक जमा रहता है, तो गंदा हो जाता है, उसी तरह, पांच साल में एक बार, हमारे पास सत्ता को बदलने का अवसर होता है और हमें इस अवसर का सदुपयोग करना चाहिए।” यह एक महिला की सच्ची , अचूक , नीरस , शांतिपूर्ण धर्मनिरपेक्ष और क्रन्तिकारी अपील है। ठीक उसी तरह जैसे कैराना में महिलाएं किसी भी चीज़ के बारे में पुरुषों की सोच को बदलना चाहती हैं। पुरुष कहें, ” अपना सिर ढकें ” तो `हां ‘ कहें, और फिर पुरुषों से वही करने को कहें जो वे चाहती हैं।
परिणाम जो भी हो, इस एक तरफी प्रतियोगिता में इकरा का अस्तित्व उल्लेखनीय है। एक व्यक्तिगत लोकतांत्रिक दावे की कहानी , जिसे हम मतदाताओं को अपने भीतर जीवित रखना चाहिए ।