
देश ने नरेंद्र मोदी को पहली बार नहीं, लगातार तीन बार पूर्ण बहुमत से जिताया। उन्हें सिर्फ चुना नहीं गया, उन्हें सौंपा गया एक थकी हुई उम्मीद के साथ कि अब कुछ बदलेगा। दिल्ली में जब वो आए तो कहा अब देश रुकेगा नहीं, दौड़ेगा। और देश ने वाकई दौड़ने की तैयारी कर ली थी। लेकिन ग्यारह साल बाद लोग दौड़ते नहीं दिखते या तो थक गए हैं, या डर गए हैं।

विकास के जितने पोस्टर लगे, जमीन उतनी ही खाली रही। गाँव में उज्ज्वला योजना का सिलेंडर दो बार चला, फिर कोने में पड़ा रह गया। करोड़ों परिवारों ने 2023-24 में रीफ़िल नहीं कराया। राशन कार्ड है, लेकिन मंडी में जो भाव मिलते हैं, उससे किसान का चूल्हा नहीं जलता। शहर में अस्पताल हैं, लेकिन या तो डॉक्टर नहीं, या दवा नहीं। सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में पद खाली पड़े हैं, और निजी अस्पतालों में इलाज खर्चीला है। शिक्षा में बजट तो है, नीति भी है, लेकिन प्रोफेसर की सीटें सालों से खाली हैं और छात्र सवाल नहीं पूछते क्योंकि सवाल अब विचार नहीं, अपराध समझे जाते हैं।
मोदी सरकार ने ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’ जैसे नारे दिए, पर 2024 में भारत की मैन्युफैक्चरिंग GDP का 14.6% ही रह गई, जो 2014 में 15.1% थी। EPFO के आँकड़े बताते हैं कि अधिकतर नौकरियाँ 15,000 रुपये से कम वेतन वाली हैं।

बेरोज़गारी के साथ भय भी है। जो छात्र आंदोलन करते हैं, उन पर UAPA और राजद्रोह की धाराएँ लगती हैं। पत्रकारों पर IT और ED की छापेमारी होती है। विपक्ष के नेताओं को या तो जेल में डाला जाता है, या CBI के चक्कर में फँसा दिया जाता है। संसद में अब बहस नहीं होती 2023 के शीतकालीन सत्र में जब 141 सांसद निलंबित हुए, तो ऐसा लगा जैसे लोकतंत्र को स्थगित कर दिया गया हो।
इतना कुछ बदल गया है, कि यह पूछना जरूरी हो गया है कि हम किस दिशा में हैं। और उस प्रश्न का उत्तर इतिहास के एक और पड़ाव से झाँकता है नेहरू के समय से।
नेहरू को लेकर जितनी आलोचना आज होती है, उतनी शायद किसी नेता पर न हुई हो। लेकिन वे उस आलोचना को सुनते थे। संसद में विपक्ष को बोलने का समय मिलता था। राममनोहर लोहिया ने उन्हें लगातार कठघरे में खड़ा किया, लेकिन संसद में उनकी आवाज रोकी नहीं गई। उन्होंने प्रेस को स्वतंत्र रखा। जब उनके ख़िलाफ़ ‘नेहरू हटाओ’ का नारा लगा, उन्होंने जवाब में कोई एजेंसी नहीं भेजी।
नेहरू ने संस्थान बनाए। उन्होंने IIT, IIM, AIIMS, ISRO, DRDO, UGC, CSIR जैसे स्तंभ गढ़े, जिन पर आज की सरकार भी खड़ी है। वो जानते थे कि राष्ट्र सिर्फ ज़मीन और फौज से नहीं बनता राष्ट्र विचार से बनता है। उन्होंने वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया, धर्मनिरपेक्षता को संविधान में जगह दी, और सबसे कठिन समय में भी संविधान को अपने सिर पर रखा।

उन्होंने ‘डेमोक्रेसी का अभ्यास’ सिखाया। चुनाव सिर्फ जीतने का ज़रिया नहीं था, वह जवाबदेही का अवसर था। नेहरू के समय देश की प्रति व्यक्ति आय 250 रुपये सालाना थी, लेकिन उन्होंने AIIMS बनाया, परमाणु ऊर्जा पर काम शुरू किया, नहरें और भाखड़ा जैसा बांध बनाया, और वैज्ञानिक चेतना को जन चेतना में बदलने की कोशिश की।
उन्होंने विपक्ष को संवाद का मंच नहीं, एजेंसियों का निशाना बनाया। जब भी कोई मुख्यमंत्री सवाल पूछता है, तो या तो ED पहुँच जाती है या प्रेस कॉन्फ्रेंस में उसे ‘राष्ट्र विरोधी’ कहा जाता है। तमाम निर्णय आए जो संसद से नहीं निकले, वो TV की घोषणा से आए।

नेहरू की आलोचना होनी चाहिए, खूब होनी चाहिए। लेकिन आलोचना से प्रेरणा लेनी चाहिए, द्वेष नहीं। नेहरू ने खुद से असहमत लोगों को सुना, संसद में विपक्ष की बातें चलने दीं, और लोकतंत्र को एक संस्कृति की तरह जिया। मोदी के राज में संसद सिर्फ कानून पास करने की जगह रह गई है। वहां बहस नहीं होती, घोषणा होती है।
अब बात बड़ी है मोदी के पास अवसर था, शक्ति थी, जनादेश था। वे चाहते तो भारत को सिर्फ एक हिन्दू राष्ट्र की भावना नहीं, एक समावेशी राष्ट्र की वास्तविकता में बदल सकते थे। वे नेहरू की तरह विज्ञान, शिक्षा और लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों को आगे बढ़ा सकते थे। लेकिन उन्होंने रास्ता दूसरा चुना भावनाओं का, प्रचार का, और नियंत्रण का।
नेहरू ने जब सत्ता छोड़ी, तो उन्हें जनता ने नहीं हटाया उन्होंने खुद लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन को सहज स्वीकार किया। उन्होंने वह राजनीतिक संस्कृति बनाई, जिसमें हार को अपमान नहीं, प्रक्रिया का हिस्सा माना जाता था।
इतिहास मोदी को याद रखेगा एक वक्ता, एक प्रचारक, और एक अपराजेय चुनावी रणनीतिकार के रूप में। लेकिन क्या उन्हें राष्ट्र निर्माता कहा जाएगा, जैसा हम नेहरू को कहते हैं?
नेहरू ने जो दिया वह सिर्फ़ संस्थान नहीं थे, वो स्वतंत्रता का अभ्यास था। मोदी ने जो लिया, वह सिर्फ़ बहुमत नहीं था, वो एक पूरी विचारधारा को नियंत्रित करने की चेष्टा थी।
राष्ट्र नेता से नहीं बनता। राष्ट्र विचार से बनता है। और विचार वहीं पनपते हैं जहाँ डर नहीं, आलोचना की जगह हो।
नेहरू ने वो जगह बनाई थी। मोदी ने उससे दूरी बना ली।