इम्फाल में न्याय की यात्रा पर विचार
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जोशी जोसेफ,प्रसिद्ध फिल्म निर्माता और पुरस्कार विजेता, अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर मणिपुर के संकटग्रस्त क्षेत्र के लिए न्याय के विचार पर चिंतन करते हैं।
इम्फाल के एक फोटोग्राफर मित्र रतन लुवांगचा को लगभग 15 साल पहले घाटी स्थित एक विद्रोही समूह ने उनके आवास पर गोली मार दी थी। रतन आम नागरिकों के मुद्दों के लिए घाटी के सबसे लोकप्रिय और मुखर पत्रकार/फोटोग्राफर थे और उन्होंने कई घोटालों का पर्दाफाश किया था। रतन गंभीर रूप से घायल हो गए और उन्हें आईसीयू में भर्ती कराया गया। रक्त की तत्काल आवश्यकता के बारे में खबर तेजी से फैल गई। इंफाल की माताएँ बड़ी संख्या में उनकी मदद के लिए आगे आईं। उन्होंने मेरे मित्र में, जो लगभग एक वर्ष से बिस्तर पर था, नये रक्त और नई शक्ति का संचार किया।वास्तव में उन्हें दूसरा जन्म मिला।
बाद में, रतन ने मुझे इंफाल की गलियों में एक सुबह की अजीब सैर के बारे में बताया। एक बूढ़ा आदमी और उसका हंस लगभग तीन बजे सुबह लंबी घुमावदार सैर पर जाते थे, दैनिक समाचार पत्र इकट्ठा करते थे और लगभग चार बजे सूर्योदय तक (हाँ, हमारे भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में सूरज जल्दी उग जाता है) घर लौट आते थे। तब बूढ़ा चौबा अपने पालतू हंस तोम्बा को खाना खिलाता था। चौबा प्रतिदिन मणिपुरी पढ़ना शुरू कर देता और तोम्बा पास के तालाब में चला जाता। एक पालतू कुत्ता दूर से तटस्थ भाव से इस दिनचर्या को देखता रहता।
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अब जनवरी 2024 में, मैंने इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट पढ़ी, जो इस प्रकार है, “अस्थिर आंकड़ों के अनुसार, मई और अगस्त 2023 के बीच लगभग दो सौ लोग मारे गए, एक हज़ार घायल हुए और साठ हज़ार बेघर हुए। इस सबके दौरान राज्य पुलिस और यहां तक कि सशस्त्र बल भी अधिकांशतः असहाय दर्शक बने रहे। यहां तक कि राज्य की मिलीभगत के आरोपों के बीच पुलिस कांस्टेबल से हथियार और गोला-बारूद भी लूट लिया गया।
चौबा की सुबह की अजीब सैर की कहानी देखने पर बहुत मामूली सामग्री लगती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि चौबा और हंस, इंफाल की बिल्कुल शांतिपूर्ण सड़कों से गुजर रहे थे। कई लोग सोचते होंगे कि राज्य में आजकल कानून-व्यवस्था चरमरा गईं है पर इससे पहले का समय बिल्कुल शांतिपूर्ण था। ऐसा बिलकुल नहीं था।
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तोम्बा और चौबा जिस दौर से गुजरे वह भी खूनी दौर था। बेशक, पैमाना बहुत छोटा था और हिंसक विस्फोट मुख्य रूप से राज्य और गैर-राज्य संगठनों के बीच थे। जब रतन लुवांगचा ने इस आदमी और उसके हंस की कहानी को सूक्ष्मता से सुनाया, साथ ही उन दिनों के परिवेश का वर्णन किया,जिसमें सौंदर्य और हिंसा का मिश्रण था तो यह शेक्सपियर के नाटक की तरह सामने आया।
प्रतिदिन सुबह तीन बजे के आसपास मच्छरदानी को धकेलती हुई एक चोंच सोए हुए बूढ़े को उठने के लिए उकसा रही थी। एक सुबह सैर के लिए जाने के बारे में वह बूढ़ा व्यक्ति निश्चित नहीं था क्योंकि उस क्षेत्र में कर्फ्यू लगा हुआ था। मुठभेड़ में हुई दो हत्याएँ एक छिपे हुए कैमरे से कैद हो गईं और तहलका पत्रिका ने उजागर कर दीं थी। इसके बाद नागरिकों ने विद्रोह कर दिया था। हंस, जो आलसी मालिक को जगाने की कोशिश कर रहा था, उसने सभी प्रकार की पक्षियों की आवाज़ें निकालीं; सीटी बजाना, तुरही बजाना, फुफकारना और खर्राटे लेना।
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अंततः वे आगे बढ़ ही रहे थे कि सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें बलपूर्वक रोक दिया। उन्हें घर लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। अगले दिन भी वही कहानी दोहराई गई। हंस ने सुरक्षाकर्मियों को सीटी बजाई। वे फिर घर लौट आये. नागरिक अशांति चरम पर थी और कर्फ्यू जारी था। तोम्बा और चौबा दोनों ने कर्फ्यू का उल्लंघन किया और अगले कुछ दिनों के दौरान हंस की सीटी से उत्पन्न ध्वनि वातावरण में गूँजती रहती, जो सेना की सीटियों का एक प्रकार का जवाब था। इंफाल की सड़कों पर सशस्त्र बलों के लिए भी यह एक कौतुहलपूर्ण दृश्य बन गया।
मुझे इस सामग्री में एक परम रूपक मिला और मैंने बूढ़े व्यक्ति और हंस की लघु फ़िल्म बनाई और लंबी अवधि की फिल्म बनाने के लिए अपने क्रू के साथ लौटने कर विचार किया। अफ़सोस, ऐसा होना तय नहीं था। बूढ़े व्यक्ति की अचानक मृत्यु हो गई और एकमात्र उपलब्ध दस्तावेज रतन की तस्वीरें और उस व्यक्ति और उसकी सुबह की अजीब सैर पर मेरी लघु फ़िल्म थी।
इस लघु फिल्म को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा पशु/पक्षी क्लीयरेंस बोर्ड को भेजा गया था और एक विचित्र पत्र मेरी मेज पर आ गया। इसमें कहा गया कि हंस एक घरेलू पक्षी नहीं है और फिल्म प्रभाग में कार्यरत एक जिम्मेदार राजपत्रित अधिकारी के रूप में, मुझे मणिपुर के वन विभाग को सूचित करके फिल्म पर कार्रवाई करनी चाहिए। राज्य और गैर-राज्य संगठनों के बीच झगड़े के बीच बूढ़े आदमी और हंस का रूपक एक ऐसी कहानी में बदल रहा था जिसने मुझे भी निगल लिया। ‘बूढ़ा आदमी और हंस’ फ़िल्म का निर्माता एक जटिल मणिपुर रूपक का हिस्सा बन रहा था।
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इम्फाल में रतन के साथ बाद की यात्रा में, मुझे उसी तालाब में दो हंस तैरते हुए मिले, जहाँ चौबा और तोम्बा अक्सर आते थे। चौबा की विधवा ने बूढ़े व्यक्ति की मृत्यु के बाद की कहानी बताई। मालिक के गायब होने के बाद हंस सड़क पर छड़ी लेकर किसी का भी पीछा करने लगा। वह अपने साथी राहगीर की तलाश में सड़क पार कर गया। बुढ़िया की देसी बुद्धि ने उसे उसी प्रजाति का एक और साथी पाने के लिए प्रेरित किया।
फिर, भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में एक राजपत्रित अधिकारी के रूप में, मुझे दोहरे अपराध के लिए निशाना बनाये जाने की संभावना दिखी। तालाब में एक हंस नहीं बल्कि दो हंस हैं। क्या मुझे फ़ाइल पर यह लिखना चाहिए कि पक्षी की पहचान गलती से हंस के रूप में की गई है लेकिन वास्तव में वह बत्तख है? फिल्म ‘बूढ़ा आदमी और हंस’ को प्रदर्शित करने की सेंसर बोर्ड ने अभी अनुमति नहीं दी ! ऐसा तब होता है जब एक फिल्म निर्माता ओस की बूंद पर ब्रह्मांड को प्रतिबिंबित करने के विचार से प्रेरित होता है। (ओह, फिर से एक रूपक)
मैं मणिपुर की प्रसिद्ध गांधीवादी सेनानी इरोम शर्मिला से मिला, जिन्होंने खाने से इनकार कर दिया था और सोलह वर्षों तक नाक के जरिए जबरदस्ती दूध पिलाने के कारण जीवित रहीं. उस समय रूपक के प्रति जुनूनी फिल्म निर्माता के पास अमर्त्य सेन की मौलिक पुस्तक, ‘द आइडिया ऑफ जस्टिस’ की एक हार्डकवर प्रति थी। इरोम ने पहले पन्ने पर कुछ लिखा और हमने एक तस्वीर ली। बाद में मैं शर्मिला के जीवन में उस ऐतिहासिक क्षण का गवाह बना जब उन्होंने क्रूर कानून एएफएसपीए 1958 के खिलाफ अपनी लड़ाई खत्म करने का फैसला किया। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल की एक नर्स ने उसकी बायीं हथेली पर शहद की कुछ बूंदें डालीं। शर्मिला ने शहद की बूंदों को महसूस किया और मुस्कुराते हुए उसका स्वाद चखने जा रही थी। अचानक उसने एक झटके के साथ अपना दाहिना हाथ हटा लिया। उन शहद की बूंदों पर सोलह लंबे वर्ष प्रतिबिंबित हो रहे थे। शर्मिला उस ‘होने या न होने वाले क्षण’ में उदास हो गईं। पूरे दृश्य मीडिया ने उस दो मिनट के महान संघर्ष को बिलकुल भी नहीं दिखाया क्योंकि वह उनके ब्रेकिंग न्यूज़ प्रारूप में फिट नहीं हो रहा था।
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मैं हंस की कहानी के बाद वाले भाग को नहीं जानता। मुझे पता है कि शर्मिला की शादी हो गई और उनके जुड़वां लड़के हुए, लेकिन वह बेंगलुरु से इंफाल नहीं लौट सकीं। न्याय का विचार अभी भी सड़कों पर व्याप्त अराजकता से पार पाने की कोशिश कर रहा है। जब मुझे ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ नाम की एक और लंबी यात्रा के बारे में पता चला, जिसमें न्याय बुना गया है, तो पूरी कहानी मेरी आंखों के सामने जीवंत हो गई। न्याय के लिए एक छोटी सी कोशिश निर्णायक लहरों में बदल सकती है। मैं इस भूमि के इतिहास से भी गुजरा हूं जहां मुट्ठी भर नमक उठाने पर एक साम्राज्य का पतन हो गया था।
समय की दृष्टि से इम्फाल एक तीव्र स्पंदन वाला स्थान है।
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Well written dear