28 अक्टूबर को दिल्ली में कांस्टीट्यूशन क्लब में एक सेमिनार हुआ था, ‘संवैधानिक राष्ट्र भारत पर आसन्न संकट व चुनौतियां’। इस सेमिनार में अशोक बाजपाई, आकृति भाटिया, कबीर श्रीवास्तव, नितिन वैद्य और प्रोफेसर राजकुमार जैन ने अपने विचार रखे। रवीश ने भी मीडिया को लेकर अपनी बात रखी ।यह भाषण उसी सेमिनार का है।
बहुत – बहुत शुक्रिया रमाशंकर जी, राजकुमार जी,अशोक जी, कबीर साब, आकृति जी और नितिन जी। आयोजक को कारण पता है कि मैं क्यों बाद में आया और क्यों पहले चला जाऊंगा।पर यह बेअदबी नहीं थी ।यह मेरी फितरत भी नहीं है। मैं किसी वजह से देर से आया हूं फिर भी आप सबसे क्षमा मांगता हूं। बिना तैयारी के बोलने की मेरी आदत नहीं । इसके लिए काफी तैयारी करता हूं ।इस बात की चिंता थी कि कैसे बोल पाऊंगा पर खैर अब आ ही गया हूं तो बोलना तो पड़ेगा।
दस साल हो गए इस मीडिया पर लिखते और बोलते हुए और इस दौरान इसको भीतर और बाहर से परखते हुए।और अपने ही बोले हुए को बार – बार संदेह की निगाह से देखते हुए कि कितना इसमें अतिरेक है और जो बोला जा रहा है वह वास्तविकता के कितने करीब है। हर बार लगता है और अब ज्यादा लगता है कि जो मौजूद ही नहीं उसके बारे में बोलना बहुत ही मुश्किल है। मीडिया का जो आकार है वो अब इसके नाम में बचा है।उसका जो काम है वो निराकार हो चुका है ।जो है नहीं अब उसके बारे में मुझे बोलना है।
कुछ पत्रकार होते, कुछ अच्छी – बुरी गलतियां होती तो उनका विश्लेषण किया जा सकता था। क्या ऐसा हो सकता है कि आप क्रिकेट नहीं खेलते फिर भी आप क्रिकेटर कहलाएंगे।ऐसा नहीं हो सकता है। लेकिन आप बिना पत्रकारिता किए मीडिया के एंकर कहला सकते हैं। मैं मीडिया की बात जब भी करता हूं तो हमेशा उस मुख्य धारा की बात करता हूं जिसे सरकार और बाजार कई लाख करोड़ रुपए के विज्ञापन देते हैं।इस पेशे को लोकतंत्र की अनिवार्य एजेंसी के रूप में देखा जाता है।अब तो यह लोकतंत्र का अनिवार्य हत्यारा बन गया है। आज चुनौती यह है कि अगर लोकतंत्र को बचाना है,संवैधानिक मूल्यों को बचाना है, या बचे हुए लोकतंत्र को ज़िंदा रखना है तो इस मीडिया से लोकतंत्र को बचाना पड़ेगा ।इस दौरान जो दस साल 2014 के बाद के, जिसके बारे में प्रधान मंत्री जी ने कहा कि वो तारीख नहीं है,बदलाव का एक युग है।
जो अपने पेशे में नहीं दिखी वो चीज़ है सपना। मुख्य धारा में काम करने वाले पत्रकारों के बीच अपने पेशे को लेकर कोई सपना नजर नहीं आता, जब मैं मिलता हूं उन लोगों से। और जब सपना नहीं है तो जाहिर है जज़्बा भी नहीं होगा। पत्रकारिता का कोई भी मूल्य कोई भी सपना संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक मूल्यों के बगैर तो हो ही नहीं सकता।उनके भीतर का पत्रकार होने,अच्छा पत्रकार होने की होड़ या सपना अब सब कुछ खत्म हो चुका है। सबने तरह – तरह के बहाने ओढ़ लिए हैं। जो उनकी मुखरता थी, समय – समय पर या असमय या आदतन वो सब मिमियाहट में बदल गई है।और यह कोई छोटी इंडस्ट्री की बात नहीं कर रहा हूं । बहुत बड़ी इंडस्ट्री है। हजारों की संख्या में लोग इसमें काम करते हैं। काम करने के लिए लोग हज़ारों की संख्या में पत्रकारिता की पढ़ाई करते हैं।इन सब की संख्या मिला दें तो ठीक – ठाक एक संख्या बन जाती है। फिर भी पत्रकारिता को लेकर इनके बीच कोई सपना नजर नहीं आता । जैसे कोई बल्लेबाज सोचता होगा कि हमारी बल्लेबाजी या गेंदबाजी इस तरह की होनी चाहिए, गेंद की रफ्तार ऐसी होनी चाहिए, उसका स्विंग ऐसा होना चाहिए । इस तरह का सपना इस पेशे से जुड़े हुए लोगों में नजर नहीं आता । हो सकता है कि मेरे देखने में कोई कमी हो । और कोई आग नहीं। कई बार मैं सोचता हूं कि ये जो छात्र यूनिवर्सिटी जा रहे हैं पत्रकारिता की पढ़ाई करने के लिए तो जब पत्रकारिता ही नहीं बची है तो किसलिए जा रहे हैं? जब पेशा ही खत्म हो गया है तो फिर सिलेबस में उस पेशे के बारे में पढ़कर वो क्या करेंगे? चिंता होती है नौजवान लोगों की। हमें अपने समय में फिर भी अवसर मिल जाते थे कुछ न कुछ करते रहने के।और जब ये पत्रकार घर जाते होंगे या घर से दफ्तर आते होंगे तो क्या बात करते होंगे । कौनसी ऐसी खबर लेकर आते होंगे जनता की, जिसे लेकर दौड़कर रिपोर्टर जाता होगा संपादक के पास और संपादक दौड़कर उसे जनता के बीच ले जाता होगा। किस स्टोरी के बारे में क्या सोचता होगा जिसे बनाकर उसे पत्रकार होने का सुख मिलता।इसका हम सबको अनुभव हुआ था।जब हम इस पेशे में आए थे तो दूसरे चैनल के पत्रकारों से भी इस तरह की बातें हुआ करती थी कि तुम्हारी स्टोरी में वो एंगल छूट गया था।हमारी स्टोरी ज्यादा सही थी।तुमने गलत सोर्स से बात की है। लेकिन तुम्हारा शॉट अच्छा था। तुम्हारा कैमरामैन अच्छा है पर हमारे चैनल के कैमरामैन अच्छे नहीं हैं। तो इस तरह की बातें होती थीं और जब कैमरामैन से बात होती थी तो वो बताया करते थे कि आपके विजुअल्स में साउंड की क्वालिटी अच्छी नहीं थी।तो कुछ होने का या हो जाने का एक सुख था, अभ्यास था जिसे हम लगातार कर रहे थे।अब यह सुख समाप्त हो गया है और समाप्त किया मीडिया ने, पत्रकारों ने मिल कर और इसके मालिकों ने।जिस मीडिया में सपना ही न हो वो कुछ भी हो कारोबार नहीं हो सकता है।
आज की तारीख में आप गोदी मीडिया के चैनलों में प्रोडक्ट के आधार पर आप फरक करना चाहें तो नहीं कर पाएंगे।इनके बीच ही मीडिया के अच्छे होने या एक दूसरे से अच्छे होने की प्रतिस्पर्धा समाप्त हो गई है।मगर इनका बिजनेस चल रहा है।इस पर लंबी बातचीत हो सकती है कि किस तरह बाजार का विज्ञापन, कॉरपोरेट का पैसा नफरत फ़ैलाने और लोकतंत्र की हत्या करने वाली इस इंडस्ट्री में लग रहा है।पहले मीडिया बहाने बनाया करता था जब उसपर सवाल उठते थे कि आपका कंटेंट बहुत खराब है। तो एक बहाना था कि दर्शक ही ऐसे हैं, टी आर पी नहीं आती है तो हम टी आर पी के लिए, जीने के लिए ऐसा करते हैं। लेकिन अब मुकेश अंबानी को तो इतनी मजबूरी नहीं होती, उसके पास बहुत पैसा है। टी आर पी से कितना पैसा आता है बीस – पच्चीस करोड़ ।अगर पैसा कारण था तो मुकेश अंबानी का चैनल सबसे अच्छा होना चाहिए था। पर उसी चैनल पर उनका एंकर बैठकर बोलता है कि परमानेंट सॉल्यूशन होना चाहिए।तो यह सब बहाना भी अब समाप्त हो गया है। एक ऐसा मॉडल विकसित हुआ है जिसे देखकर अब कोई भी आश्वस्त नहीं हो सकता कि हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है।
यह वही मीडिया है जो 2014 से पहले नागरिक पत्रकारिता की बात करने लगा था। नागरिकों की तरफ से सवाल पूछकर उन्हें सशक्त बना रहा था । बीच – बीच में भटक भी जाता था पर लौट भी आता था क्योंकि जनता के बीच ऐसा कुछ घट जाता था कि उसे लगता था कि तमाम भटकनों के बावजूद एक जिम्मेदारी हैं जो उसे जानता के बीच ले जाती है जब भी किसी तरह की सक्रियता नजर आती है। इसीलिए आंदोलनों के बीच कई चैनल स्टूडियो बनाने लगे और लाइव रिकॉर्डिंग होने लगी। यानि जनता के बीच खड़े होकर वहां कुर्सी लगा दी गई और एक नए तरह की स्पेस बन रही थी।पत्रकार अक्सर जनता के पास क्यों जाता था क्योंकि वह अपने होने की शक्ति उसी से ग्रहण करता था।
2014 के बाद से मीडिया ने अपनी शक्ति के उस स्त्रोत को बदल दिया है।वो स्पेस ही खत्म कर दिया कि हमें जनता से शक्ति नहीं लेनी है।सरकार से शक्ति लेने लगा और पूछना बंद कर दिया सरकार से, जनता से पूछने लगा।आपको चिन्हित करने लगा। आपके लेखकों को गद्दार, देशद्रोही तरह – तरह के नामों से पुकारने लगा।वो एक तरह से चुनाव के समय के बाहुबली की तरह हो गया ।ये सूचना के नए बाहुबली हैं।ये लठैत हैं। इनका काम आपको सूचना देना नहीं हैं बल्कि यहां की सूचना कहीं और न पहुंच जाए उसे रोकना है।ये जनता को धमकाते हैं।जब ओलंपिक पदक विजेता महिलाएं प्रदर्शन कर रही थीं तो वे कहा करती थीं कि हमारा इंटरव्यू लेने तो बहुत लोग आते हैं पर दिखता कहीं नहीं है। उन्हें नहीं दिखाया गया।और जब किसान आंदोलन करने गए तो बिना जाने, बिना पड़ताल किए मीडिया ने झट से उन्हें आतंकवादी कह दिया।ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। जिन्हें अन्नदाता कहा जाता था उनके लिए कितनी अलंकृत शब्दावली विकसित कर दी गई थी ये हैं, वो हैं । उन्हें एक झटके में आतंकवादी कह दिया गया।मीडिया ने साफ कर दिया कि अब हमें इनसे अपनी शक्ति नहीं चाहिए।तो जब मीडिया जनता का ही विरोधी हो जाए ; विपक्ष का विरोधी हो जाए तो उससे उम्मीद करना कि वो किसी तरह से संविधान का पालन करेगा, अपने समय को बर्बाद करना है। मैं तो नहीं करता।लोकतंत्र विरोधी होने के लिए जरूरी था कि मीडिया जनता और विपक्ष दोनों को बाहर कर दे। अपने काम से उसने ऐसा कर दिया।इसलिए 2014 सिर्फ तारीख नहीं है बल्कि बदलाव का युग है।
इसके बाद एक और चीज की जरूरत थी, सूचना को बाहर कर देने की।वो काम भी बहुत आसानी से किया गया।इतनी खबरें खोज कर लाई गईं कि जब आप अखबारों को पलटेंगे तो इस तरह की खबरों को लाने वाले की पहचान और नाम आपको याद नहीं आएगा।खासकर जिस गोदी मीडिया की मैं बात कर रहा हूं और उन्हीं की बात कर रहा हूं।यहां तक की जब झूठ का हमला हुआ तो मीडिया ने झूठ से लड़ाई नहीं की ; दोस्ती कर ली।और इस लड़ाई को लड़ा कौन? बाहर के लोग ऑल्ट न्यूज़, बूम लाइट ।इन सबको आउटसोर्स कर दिया गया।ये जो फेक न्यूज़ हैं इसका खंडन, इसको बताने का काम हम नहीं करेंगे।क्योंकि फेक न्यूज़ जो है दरअसल वही सरकारी न्यूज़ था।वो पॉलिटिकल न्यूज़ था।तो अगर आप उस पॉलिटिकल फेक न्यूज़ का खंडन करते तो आप उसकी निगाह में आ जाएंगे।सबका मालिक एक है।तो इसलिए आल्ट न्यूज़ और बूम लाइट ने यह जिम्मेदारी उठाई।आउटसोर्स हो गया। मीडिया और सरकार के झूठ में फरक करना अब मुश्किल हो गया है कि ये सरकार का है या मीडिया के द्वारा फैलाया गया है। जब गोदी मीडिया ही एक तरह से सरकार का एक झूठ है ।तो इसलिए जब आप मोहम्मद जुबेर की टाइम लाइन पर जाएंगे तो कमाल का काम मिलेगा।यह अकेला नौजवान सिर्फ भारत की फेक न्यूज़ की बात नहीं करता ।जिस तरह से फेक न्यूज़ का इस्तेमाल होता है और जिस तरह से ये पर्दाफाश करता है वह कमल की बात है।तो यह सपना मीडिया के भीतर के लोगों का होना चाहिए था, पर उसका नहीं है ।जो हर 30 तारीख को ट्विटर पर अनाउंस करता है कि मुझे इतने पैसे की जरूरत है ।अभी एक लाख ही आए हैं,आप कुछ और भेज दीजिए।
लेकिन विज्ञापन और आप सब पैसा दे रहे हैं अखबार को, वो बंद कर दीजिए ।वो पैसा मुझे भेज दीजिए । मैं अच्छी सी शर्ट खरीद कर तस्वीर भेज दूंगा कि देखिए आपके 250 रुपए से कोई तो खुश है।तो वो बंद कर दीजिए। तकलीफ तो बहुत होगी लेकिन बंद कर दीजिए।आए दिन यह नौजवान ए एन आई एजेंसी के न्यूज़ को कितनी बारीकी से पकड़ता है। कई बार इस तरह पकड़ता है कि डिलीट करना पड़ जाता है। हर समय वो पर्दाफाश करता है। हर समय मीडिया को कोई न कोई विषय मिलता है और इस विषय के हिसाब से योग्य और पारंगत लोग ले आए जाते हैं कहीं से। सारे अखबार के मालिकों को सारे चैनलों के मालिकों को पता है कि जो फेक न्यूज़ है, जो व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी का प्रोपेगंडा है वो साहब का है ।आप उसमें हाथ मत डालो बल्कि हो सके तो उसी में से अपनी शाम का कुछ डिबेट निकाल लो। तो आज मीडिया के झूठ से लड़ने के लिए एक मीडिया चाहिए।अपने दम पर आपको ही खड़ा करने की जरूरत है।इसीलिए कहा कि जो मौजूद नहीं है, जिसका अस्तित्व नहीं है,जो भारत में है ही नहीं, उस मीडिया पर बोलना कितना मुश्किल है।गोदी मीडिया के पत्रकारों ने अपने भीतर के पत्रकारों की पहले हत्या की । यह बहुत जरूरी था कि पहले अपनी संवेदनाओं को,अपने पेशेवर कौशल को वो मारें तभी वो काम कर सकते थे।अब तो काफी दूर निकल आए हैं ।
हम सबको पत्रकारिता में यह सिखाया गया है कि कुछ नहीं तो पांच डब्ल्यू याद रखना ; हू, व्हाट, व्हेन, वेयर, वाय।अब एक ही डब्ल्यू रह गया है व्हाट,जिसकी आड़ में वो अपने झूठ को सच साबित करता है।इसने अपने आपको सूचना से विहीन कर लिया है । लोकतंत्र को जनता और विपक्ष से विहीन कर दिया है।इस मीडिया स्क्रीन पर अब जनता और विपक्ष नजर नहीं आते ।इसकी खबरों का अब एक ही चेहरा है, प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी।इस चेहरे के अलावा उनके पास कोई और सूचना नहीं है। ये एक नई तरह की सूचना घड़ी गई ताकि लोगों को पता न चले कि सूचना गायब है।इन दस वर्षों में प्रधान मंत्री की लोकप्रियता अलग- अलग राज्यों में घटती भी रही,बढ़ती भी रही ।लेकिन गोदी मीडिया उनके प्रति एक समान निरंतर निष्ठावान बना रहा क्योंकि वो उनमें समाहित हो चुका है।वही उनके संपादक हैं ; वही उनके समाचार हैं ; वही उनके विचार हैं ; वही उनके प्रचार हैं।आप सभी आचार हैं और बेकार हैं।इस मीडिया में आप मोदी, बीजेपी, आर एस एस,बजरंग दल सब के गुण देख सकते हैं ।मगर विपक्ष आता है तो उसे मरियल – सा बताता है ।उसका उपहास करता है।विपक्ष के सवालों को कभी जगह नहीं देता ।अडानी और पुलवामा को लेकर कभी सवाल नहीं करेगा।और इस तरह से दिखाता है कि वे दिखाई न दें,उनका काम नजर न आए।उन्हें जो भी समर्थन मिल रहा है उसे रिजेक्ट करता है। राहुल गांधी आदित्य ठाकुर,तेजस्वी यादव ये सब पचास के आसपास या उसके नीचे के नई पीढ़ी के नेता हैं ।इन्हें जोकर बना कर पेश करेगा।इन्हें करप्ट बनाकर पेश करेगा। उस देश में जहां युवा नेताओं की बात होती है,वहां इन युवा नेताओं को नहीं दिखाएगा।बल्कि सत्तर साल के नेताओं को युवा नेता के रूप में पेश करेगा।उनके काम करने के घंटों का प्रचार करेगा, लेकिन उनसे सवाल नहीं करता। तो विकल्प की कल्पना से मुक्ति।गोदी मीडिया मोदी का संकल्प ले चुका है।वो उसकी पूजा भी करता है और अपने दर्शकों से उसकी पूजा भी करता है।एक एंकर जोड़ कर बता रहा था कि प्रधान मंत्री सौ घंटे काम कर सकते हैं तो युवा सत्तर घंटे क्यों नहीं कर सकता।देश में बेरोजगारी है,काम नहीं है, कम सैलरी की नौकरी है लेकिन ये उपदेश दे रहा है कि आप सत्तर घंटे काम क्यों नहीं कर सकते।जैसे सभी को काम मिल गया है बस युवाओं ने काम में मन लगाना छोड़ दिया है। उन्होंने दफ्तर जाना छोड़ दिया है,वे छुट्टी पर घर बैठे हुए हैं। 2019 में इन युवाओं से कहा गया कि पकौड़ा तलना भी एक रोजगार है।अब उन्हें सुनाया जा रहा है कि सत्तर घंटे काम करो और काम का पता नहीं।वह आजीवन सैनिक बनना चाहता है ।हमारे युवा को आपने चार साल का अग्निवीर बना दिया।एंकर यह क्यों नहीं कहता कि जवानों को पूरी नौकरी मिलनी चाहिए।लेकिन इसके विकल्प में किस तरह के सवाल मीडिया समाज में पहुंचा रहा है ।इसलिए कि इसे जनता से बात करनी ही नहीं है जनता को डांट लगानी है। इसने बहुत दुस्साहस के साथ सामने से आंखे दिखाकर जनता को ही भागा दिया।और हैरानी होती है कि जो जनता शाम को दर्शक होती है, सुबह पाठक होती है कैसे इसे सहन कर रही है।क्या इनके पास गोदी मीडिया को न देखने का कोई भी लोकतांत्रिक तरीका नहीं बचा है?
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में मीडिया कभी स्वतंत्र रहा, कभी नहीं रहा।कभी आज़ाद रहा कभी गुलाम रहा । मगर इसका पाठक, इसका दर्शक कभी भी गुलाम नहीं था। वह एक स्वायत्त सत्ता थी।मगर अब पाठक और दर्शक होने की स्वायत्तता ही समाप्त हो गई है।जिस प्रकार से पत्रकारों ने अपने भीतर के पत्रकार की हत्या कर दी उसी प्रकार पाठकों और दर्शकों ने अपने भीतर के पाठक और दर्शक की हत्या कर दी।उसकी जगह धर्म को बिठा दिया है।ऐसा नहीं है कि उनके भीतर संवेदनाएं नहीं हैं, बिलकुल हैं मगर उनकी जगह किसी की हत्या पर खुश होने ; किसी समुदाए के परमानेंट सॉल्यूशन की बात करते हुए गर्व करने की नई संवेदना आ गई है। तो गोदी मीडिया और उसके पाठकों और दर्शकों का संबंध है।और उसपर गहराई से आप विद्वानों को अध्ययन करना चाहिए।ये केवल राजनीतिक ही नहीं मनोवैज्ञानिक संबंध भी है जो विकसित हुआ है।अब वह सही खबर नहीं पढ़ सकता।जब तक गलत खबर नहीं पढ़ेगा तब तक मानेगा ही नहीं कि उसने जो खबर पढ़ी है वह सही है। गोदी मीडिया नहीं देखने की, मैं कई बार बात करता हूं।क्या आपको लगता है कि यह इतना आसान है कि कोई गोदी मीडिया न देखे। ये तो वैसे ही है जैसे किसी रील्स देखने वाले को आप समझा रहे हैं कि तुम रील मत देखो।यह एक ऐसी आदत है जिससे बाहर आना सभी के बस की बात नहीं होती। आप धर्म निरपेक्षता से सांप्रदायिक आसानी से हो सकते हो लेकिन सांप्रदायिक से धर्म निरपेक्ष होने में या मानव होने में, या मानवीय गुणों को अपने आप में लाना बहुत ही असाध्य प्रक्रिया है।यह सबके बस की बात नहीं है। जो एक बार सांप्रदायिक होता है, वह बहुत लंबे समय के लिए सांप्रदायिक होता है।सांप्रदायिक होने के साथ – साथ वह हत्यारा भी होता है। अगर हत्यारा नहीं होता है तो हत्या का समर्थक होता है।इतना आसान नहीं है कि आप उसे एक झटके में कह दें कि आप गोदी मीडिया न देखें। वह क्या करेगा? वह कैसे जिएगा? वह उसके बिना जीना भूल गया है अब ।जब तक गोदी मीडिया के खिलाफ नागरिकों का आंदोलन नहीं होगा ; लोग घर- घर जा कर नहीं समझाएंगे, तब तक भारत को लोकतांत्रिक और लोकतंत्र के लिए खड़े होने वाला मीडिया नहीं मिलेगा।
भारत की लोकतंत्र की यात्रा में मीडिया की अच्छी भूमिका रही है,जिसे हम प्रेस के रूप में जानते थे।विभाजन की आग में घी डालने में भी इसकी भूमिका रही है। कभी गांधी जी ने अखबार न पढ़ने की सलाह दी थी। अखबारों की विभाजनकारी टिप्पणी बहुत से लोगों ने की है।लेकिन कई बार सोचता हूं कि 1947 के आसपास उन सांप्रदायिक संपादकों और पत्रकारों का आगे चलकर क्या हुआ? पत्रकारिता में भी और पत्रकारिता के बाद भी वे क्या करने लगे? किस तरह से समाज में स्थापित हुए? इसकी जब कल्पना करता हूं तो जिज्ञासा होती है कि जानूं ज़रा कि जिन लोगों ने 1947 के समय इस तरह की सांप्रदायिक खबरें उड़ाई, छापी और जिसके नतीजे में कई जगहों पर दंगे हुए। कई बार सरदार पटेल की झुंझलाहट भी देखने और पढ़ने को मिलती है ।तो क्या हुआ उन लोगों का? क्या वो राजनीति में सुरक्षित हुए? समाज में प्रतिष्ठित हुए?इसका जवाब मुझे नहीं मिलता है।शायद किसी और के पास हो ।लेकिन उसी दौर में सांप्रदायिकता का विरोध करने वाले थोड़ा पहले गणेश विद्यार्थी दंगों के बीच ही मारे गए।लेकिन यह सवाल फिर भी रह जाता है कि भारत की पत्रकारिता में सांप्रदायिकता का अंश रहा है। मगर आज जो है वो अलग है ।आज सांप्रदायिकता ही पत्रकारिता है। आप सांप्रदायिकता के बगैर पत्रकारिता की कल्पना नहीं कर सकते। अगर आप सांप्रदायिक नहीं हैं, मुसलमान से नफरत नहीं करते हैं तो गोदी मीडिया में आप क्या करते हैं? कैसे अपना दिन बिताते होंगे? ये भी सोचने की बात है।आपकी क्या वहां कोई जगह हो सकती है? तो आज पत्रकार होने के लिए सांप्रदायिक होना, एंटी – मुस्लिम होना पहली शर्त है।और जब आप सांप्रदायिक हो गए तो आप किसी भी तरह से लोकतांत्रिक और संवैधानिक नहीं हो सकते।वो संभावना आपके भीतर ही खत्म हो गई। वो किसी संस्थान से पैदा नहीं की जा सकती।और मैं हिंदू – मुस्लिम का इस्तेमाल नहीं करता हूं क्योंकि अब सब एकतरफा है।तो जब पत्रकारिता सांप्रदायिक हो जाए; उसके भीतर के लोग भीड़ की हत्या पर जश्न मनाने लग जाएं, क्या आप उसे संविधान का पाठ पढ़ा सकते हैं? आज के गोदी मीडिया में हर तरह की बुरी आदत प्रवेश कर गई है।एक जो अच्छी आत्मा थी, संविधान की आत्मा, वो मीडिया से बाहर कर दी गई है।अब मीडिया पर छापा पड़ता है तो वह मीडिया के लिए चिंता की बात है।बहुत से एंकर इसकी निंदा नहीं करते हैं।न्यूज़ क्लिक पर छापे को लेकर केरला के मीडिया वन चैनल पर प्रतिबंध लगा । एनआईए का केस था तो कितने चैनलों ने इस पर बहस की? वो करेंगे भी नहीं। अभिसार शर्मा को लेकर एक सांसद ने नाम ले लिया कि चीन से पैसा लेते हैं। कहीं कोई प्रमाण नहीं है।और उस पर मुख्य धारा के गोदी मीडिया ने बहस भी कर दी ।अभिसार खुद पत्रकार हैं तो अब पत्रकार को भी मीडिया से लड़ना पड़ रहा है अपने अस्तित्व को बचाने के लिए तो आम नागरिक की क्या हालत होगी आप समझ सकते हैं।तो हमें नहीं मालूम था कि इनके धार्मिक मूल्यों और सांस्कृतिक मूल्यों के बीच इस तरह का मीडिया मूल्य बचा हुआ है । वह ऐसे ही धार्मिक और सांस्कृतिक प्रदेश या राष्ट्र की कल्पना करते हैं पर अब तो नजर आता है।
तो अगर आप पत्रकारिता करें और आपको लगता है कि आप सांप्रदायिकता के बिना पत्रकारिता करना चाहते हैं तो आपको इस मीडिया से भी दिन – रात लड़ना पड़ेगा ।और लड़ते हुए ही आप पत्रकारिता कर सकते हैं।फिर भी वो आपको देश का दुश्मन बताएगा।यानि अब इस मीडिया में पत्रकार के लिए भी अब जगह नहीं ।प्रेस क्लब में नोएडा के कितने चैनल समर्थन में गए होंगे? कोई तो नहीं गया होगा।तो ये सब अब बहस तो होती नहीं है। गोदी मीडिया अब भी मीडिया के मूल्यों का संहार कर रहा है । उसके जो संवैधानिक सुरक्षा चक्र हैं कानून के जो बदलाव हो रहे हैं उस पर भी बहस नहीं करता।उसे छोड़ रहा है। तो आम आदमी की हालत यह हो गई है अब हर दिन मुझे पचास मैसेज आते हैं कि आप नहीं करोगे तो कौन करेगा? क्या मैं सारे अखबारों का विकल्प हो सकता हूं ; सारे चैनलों का विकल्प हो सकता हूं? जाहिर है नहीं हो सकता हूं ।और हर दिन मुझे पचास से सौ लोगों की उम्मीद तोड़नी पड़ती है।बड़े – बड़े अक्षरों में लिखकर बताना पड़ता है कि मैं यह नहीं कर सकता हूं क्योंकि इसको करने की एक पेशेवर प्रक्रिया होती है जिसके लिए मेरे पास संसाधन नहीं हैं।जो अखबार चल रहे हैं ; जो चैनल चल रहे हैं यह उन्हीं को करना है।और अगर वो नहीं कर रहे तो आपको यह स्वीकार कर लेना पड़ेगा कि अब जो भी अवसर है,अपनी बात कहीं पहुंचाने का, वो समाप्त है, वो मृतप्राय है। आम आदमी क्या कर रहा है अब जब वो प्रदर्शन करने जाता है तो एक पोस्ट बनाता है, उसी पोस्ट को दर्जनों – सैकड़ों पत्रकारों के ट्विटर हैंडल पर पोस्ट करता है।उसकी कोई नहीं सुनता। पहले मीडिया लोगों के पास चल कर जाता था अब आदमी मीडिया के पास चल कर जा रहा है तब भी कोई नहीं सुन रहा।2019 में ऑस्ट्रेलिया की केंद्रीय जांच एजेंसी ने ए बी सी न्यूज़ चैनल पर छापा मारा और एक पत्रकार के घर भी छपा पड़ा। तो इसके विरोध में जितने भी क्षेत्रीय अखबार थे उनमें कम प्रसार हुआ और राष्ट्रीय चैनल में अधिकतम प्रसार हुआ। इन सबने अपने पहले पन्ने पर कुछ काट – पीट कर कुछ लिख कर उस पर काले रंग की स्याही लगा दी ताकि आप इसे पढ़े नहीं। सारे अखबारों ने विरोध किया था और टीवी चैनल पर विज्ञापन चला था कि सरकार आपसे सच छिपाना चाहती है तो वह क्या है जो छिपाना चाहती है। हमारे यहां चल सकता हैं क्या? नहीं चल सकता।तो इन पत्रकारों ने रिपोर्ट क्या किया था? रिपोर्ट यह थी कि अफगानिस्तान में ऑस्ट्रेलिया की सेना ने किस तरह से युद्ध के नियमों को तोड़ा है और युद्ध का अपराध किया है।क्या आज के भारत में आप इस तरह की स्टोरी की कल्पना कर सकते हैं? नहीं कर सकते हैं।और इससे वहां के जो प्रधान मंत्री थे स्कॉट मॉरिसन बड़ी दिक्कत हो गई उनकी। राइट टू नो कोलिशन बना था। हमारे यहां राइट टू इनफॉर्मेशन कानून है उसकी दुर्दशा जाकर आप देख लीजिए कि क्या हो रही है। ये लाखों करोड़ों के विज्ञापन वाले मीडिया में आपको एक दो पत्रकार ही मिलेंगे,वो भी अखबार में,जो इसका इस्तेमाल करते हैं।RTI कानून का सबसे ज्यादा इस्तेमाल पत्रकारों को करना था, उन्होंने ही सबसे कम किया।2014 से पहले कुछ हुआ होगा 2014 के बाद अब करते भी नहीं हैं और कोई करके लाता है तो इस्तेमाल नहीं किया जाता। 2018 में अमेरिका में बोस्टन स्ट्रोक के नेतृत्व में करीब – करीब तीन सौ अखबारों ने संपादकीय लिखा था।प्रेस फ्रीडम के लिए लेख लिखा था। तो ऐसा नहीं है कि मैं पश्चिम के अखबारों को आदर्श के रूप में पेश कर रहा हूं।अभी तो बिलकुल भी नहीं कर सकते । इजरायल और गाजा को लेकर के जिस तरह उनकी रिपोर्टिंग है वह बहुत खराब है।लेकिन उसी रिपोर्टिंग में उन्हीं चैनलों के प्रतिनिधि गाजा में मारे जा रहे हैं| 28- 29 पत्रकारों की वहां हत्या हुई है इस युद्ध में।और ये चैनल कम से कम इनमें इतना लिहाज बचा हुआ है कि वो स्वीकार करते हैं कि हमारे संवाददाता हैं वे।मुझे ठीक से नहीं मालूम कि ये इनके पूर्णकालिक संवाददाता हैं या अंशकालिक हैं।फिर भी ये कहना कि ये हमारे संवाददाता हैं ।और इसी दौर में आप देखिए कि जो पत्रकार इस युद्ध क्षेत्र से रिपोर्टिंग कर रहे हैं उनके अपने बच्चे मारे जा रहे हैं, परिवार के लोग मारे जा रहे हैं फिर भी वो रिपोर्टिंग कर रहे हैं। तो क्या इस तरह का सपना और जज़्बा इतने बड़े देश में है ? अब तो कोर्ट में भी राइट है उनका। जज लोग दुखी हो जाएंगे कि हमारे बारे में कोई सोचता नहीं ।तो इस तरह आप देखिए कि कितना जरूरी पेशा है डॉक्टर की तरह ही जरूरी है। डॉक्टर भी वहां से नहीं भाग रहे। अस्पताल से मैदान छोड़कर नहीं भागे।वो वहां टिके हुए हैं ।कायदे से आज के मीडिया में उन्हें हीरो बनाया जाना चाहिए जो अपनों को मरता हुआ देख रहे हैं। दूसरों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। पता है कि बिजली जाएगी और अस्पताल पर बम गिरने वाला है। शत प्रतिशत पता है कि यही होने वाला है तब भी मरने के लिए वो वहां खड़े हैं।
पिछले दस वर्षों में भारत के लोकतंत्र पर कितना हमला हुआ।जब लोग मुझसे पूछते हैं कि हमें क्या करना चाहिए तो मैं कहता हूं कि मैं बताता हूं। ऐसा उपाय बताऊंगा कि कपड़े भी गंदे नहीं होंगे ।तुम इस गोदी मीडिया के अखबार और न्यूज चैनल को 250 रुपए देना बंद कर दो।इतना काम नहीं होता? जिन अखबारों में सांप्रदायिक खबरें छपती हैं ; जिनके खिलाफ छपती हैं वो भी लेकर पढ़ रहे होते हैं क्योंकि उनमें उनका भी फोटो छप जाता है कभी – कभी। कोई भी लड़ाई आज के दौर में गोदी मीडिया के बनाए हुए मूल्य – जाल से लड़े बगैर लोकतांत्रिक और संवैधानिक लड़ाई हो ही नहीं सकती।इसका मतलब है कि आप समय बर्बाद कर रहे हैं। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी और मुझमें एक चीज कॉमन है, हम तीनों यू ट्यूबर हैं।लेकिन कुछ – कुछ अंतर भी है। राहुल गांधी शायद नहीं कहते हैं कि मेरे चैनल को सब्सक्राइब करो।कहा भी होगा तो मेरे ध्यान में नहीं ।लेकिन प्रधान मंत्री ने कहा कि मेरे चैनल को सब्सक्राइब करो। उस मामले में मैं उनसे सीनियर हूं क्योंकि मैं पहले से ही कहता आ रहा हूं कि मेरे चैनल को सब्सक्राइब करो। और ट्विटर पर भी मैं प्रधान मंत्री से सीनियर हूं।। मैं उनसे पहले आया हूं ट्विटर पर।उनके समर्थक मेरा मजाक उड़ाते थे कि ये ट्विटर पर मांग रहा है और सब्सक्राइबर ढूंढ रहा है।इसे नौकरी से निकालो।यह पत्रकार खुश है । पत्रकार की नौकरी जाने से तो हम यहां तक आ गए। लेकिन जब उन्होंने सब्सक्राइबर मांगना शुरू कर दिया तो मैंने कहा कम से कम इस मामले में तो मेरी जीत हुई है।लोग मुझे फॉलो कर रहे हैं और अच्छे के लिए। तो आपको यह समझना चाहिए कि प्रधान मंत्री को क्यों यू ट्यूब पर आना पड़ा? राहुल गांधी और मुझे क्यों यू ट्यूब पर आना पड़ा। दोनों के कारण अलग हैं। प्रधान मंत्री के पास अगर बाजार का मीडिया है,बेहिसाब दूरदर्शन के तमाम चैनल हैं,आकाशवाणी के तमाम चैनल हैं इसके बाद भी उन्हें यू ट्यूब पर जाकर कहना पड़ा कि आप हमें सब्सक्राइब कीजिए। इसलिए नहीं कि टेलीविजन के दर्शक कम हो गए हैं।कुछ कारण रहे होंगे।या फिर इन एंकरों की साख खत्म हो गई है तो अब उनसे ज्यादा वसूली नहीं हो रही। पर मुझे लगता है कि यह ज्यादा मजबूत कारण नहीं है। हमें कभी भी इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि यू ट्यूब का जो स्पेस है वो कोई गैर सांप्रदायिक है।वहां पर मुख्य धारा के चैनलों से कहीं ज्यादा सांप्रदायिकता है।वहां ऐसी सामग्री और ऐसे कार्यक्रम मजबूती से चल रहे हैं।तो प्रधान मंत्री उन तक पहुंचने के लिए कह रहे हैं कि मुझे भी सब्सक्राइब कर लो और अपने – अपने कार्यक्रम में मेरा भी थोड़ा – थोड़ा डालना शुरू कर दो।लेकिन राहुल गांधी को जिस तरह से मीडिया ने ब्लॉक किया ; विपक्ष के नेताओं को। वो जब भी प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं अडानी के मामले में तो कभी दिखाया नहीं जाता। कभी उस पर बहस नहीं होती क्योंकि जब आप बहस करते हैं तो अडानी पर जितनी भी खबरें छपी हैं वे सब रिसर्च में ऊपर आ जाएंगी। प्रवक्ता बोलने लग जाएगा, तो करना ही नहीं।तो इस तरह से आपके सामने यह स्थिति बना दी गई है । सत्यपाल मल्लिक का इंटरव्यू जब राहुल गांधी कर रहे थे तो मुझे अच्छा नहीं लगा।अच्छा अपने लिए नहीं कि भारत की पत्रकारिता अब इस हाल में हो गई है कि विपक्ष के नेता को पत्रकार बनना पड़ रहा है और जो पत्रकार है वो विपक्ष की हत्या कर रहा है। इसलिए मुझे अच्छा नहीं लगा और यह भी लगा कि जिस नेता का मीडिया ने मजाक उड़ाया और कमज़ोर साबित कर दिया ; उस नेता ने अपने एक इंटरव्यू से लाखों – करोड़ों की इंडस्ट्री वाले मीडिया को हमेशा – हमेशा के लिए शर्मिंदा कर दिया कि जब तुम नहीं हो तो विपक्ष का एक नेता भी बनेंगे और हम इंटरव्यू भी करेंगे।यह बहुत दुखद क्षण था जब मैं इस इंटरव्यू को देख रहा था ।देखते समय मुझे हर क्षण बहुत दुख हो रहा था कि इतना बड़ा देश ; इस मीडिया का स्तर इतना गिर गया।अब भ्रम में नहीं रहेंगे।
7 फरवरी 2023 को प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था था कि इन लोगों को ईडी का धन्यवाद करना चाहिए कि ईडी के कारण ये लोग एक मंच पर आए हैं। ईडी इन लोगों को एक मंच पर ले आया ।जो आरोप विपक्ष लगा रहा था कि आप ईडी का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं, उस आरोप की स्वीकृति वह संसद में कर रहे थे कि ईडी के कारण इनकी एकजुटता हुई है।जो काम देश के मतदाता नहीं कर पाए ( वह देश के मतदाता को भी कोस रहे हैं ) वह ईडी के लोग कर रहे हैं।तो यह एक सवाल था ।और इसी साल फरवरी में प्रधान मंत्री ने कहा कि मोदी पर विश्वास अखबार की सुर्खियों से पैदा नहीं हुआ ।मोदी पर भरोसा टीवी पर चमकते चेहरों से नहीं हुआ है।( जिन्होंने उनकी इतनी खिदमत की उनके बारे में वे कह रहे हैं ) जीवन खपा दिया है, पल – पल खपा दिया है।
एक और बयान मैं कहना चाहता हूं ।2019 का चुनाव हो रहा था और इंडियन एक्सप्रेस के राजकमल झा और रवीश तिवारी उनका एक इंटरव्यू ले रहे थे।उस इंटरव्यू में एक लाइन है जो मैं अक्सर सोचता हूं कि उस स्तर के अखबार ने क्यों इस लाइन को हेड लाइन में नहीं डाला था? क्या यह एडिटोरियल चूक थी? यह हो ही नहीं सकता।हम सब जब किसी बड़े नेता का इंटरव्यू करते हैं तो उसकी एक – एक बात पर बहुत गहरी निगाह होती है और उसकी तीन चार बातों में से हम चुनाव करते हैं कि किस लाइन को हम हेडलाइन बनाएं जिसकी न्यूज़ वैल्यू ज्यादा हो। तो प्रधान मंत्री कहते हैं ” वेदर न्यूज़ गेट्स पब्लिश्ड इस नॉट द ऑनली थिंग इन ए डेमोक्रेसी”। समाचार प्रकाशित होता है या नहीं लोकतंत्र में यही एकमात्र चीज नहीं है। नमस्कार।
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