जैसे ही हमारा सबसे बड़ा चुनावी उत्सव शुरू होता है, हर कोई जो खुद को कुछ समझने का दावा करता है, वह 320, 400, 250, 270,390 की अटकलें लगाना शुरू कर देता है। मुझे यह एक किटी पार्टी में रखे तंबोला गेम जैसा महसूस होता है जो 1980 के दशक में पटियाला में मेरी चाची ने अपने घर में रखी थी। आपने आखिरी बार किससे बात की है, उसके आधार पर आप संख्याओं का अंदाजा लगाते हैं। कोई कहता है “ओह, अब जब यूपी में राष्ट्रीय लोक दल बीजेपी के साथ है, तो सभी जाट वोट एक तरफ जाने वाले हैं। ” और आप इन सूचनाओं को आपस में जोड़ कर गणना करते हैं – यूपी – सत्तारूढ़ बीजेपी 80 में से 70 संसदीय सीटें जीतेगी। कोई कहता है “ओह, मैंने अभी कर्नाटक में किसी से बात की है और आप जानते हैं, पूरे दक्षिण में, भाजपा 10 के पार नहीं जाएगी।” और आप कुछ सीटें घटा देते हैं।
लगभग तीस साल पहले, चुनाव की घोषणा हममें से अधिकांश के लिए एक नई और आकर्षक जिज्ञासा होती थी। हम चुनाव विश्लेषक-अर्थशास्त्री प्रणय रॉय के अकादमिक रूप से संतुलित, धीमे विचार-विमर्श को ध्यान से सुनते थे। उसके विपरीत जोशपूर्ण और मजाकिया विनोद दुआ के साथ चुनाव पूर्वानुमान के विचार से रोमांचित होते थे। चुनाव उस समय को परिभाषित करते प्रतीत होते थे जब लोग अपनी पसंद चुन सकते थे। यह आपातकाल के बाद का समय था जब भारत एक ‘बाजार अर्थव्यवस्था ‘बन रहा था। ‘पसंद’ शब्द कई अर्थो में प्रयोग किया जाने लगा। मध्यम वर्ग को पता चला कि वे भी उन चीज़ों को खरीद सकते हैं जिन्हें अब तक उन्होंने केवल अभिजात वर्ग को विदेश से वापस लाते देखा था। विदेशी चीजों जैसे कि रोबोट और बनी (खरगोशों ) के आकार में पेंसिल और इरेज़र जिन्हें विदेश जाने वाले लोग उपहार के रूप में लाते थे, यहां तक कि लुफ्थांसा लिखी प्लास्टिक की थैलियों को भी करीने से मोड़ा जाता था और किसी अलमारी में पीछे की तरफ रखा जाता था।
2024 में, आपको हर ओर चुनाव की नीरसता महसूस होती है जिसमें न कोई शोर है न कोई रंग है। राजनीतिक रैलियों के बारे में कोई बातचीत नहीं हो रही है। टीवी के जन सम्पर्क शो में होने वाली चीख-पुकार भी अब पुरानी बातें हो चुकी हैं। तो अब क्या? उत्तर प्रदेश के शामली जिले के एक छोटे से कस्बे में रहते और काम करते हुए मुझे ऐसा लगता है कि अब कुछ भी नहीं है। पहली बार, मैं इस चुनाव की समीक्षा एक प्रांत की स्थानीय रिपोर्टर की तरह कर रही हूँ। किसी बड़े शहर की रिपोर्टर की तरह नहीं जो कुछ समझने के लिए एक दिन एक स्थान पर पहुंच जाता है और दूसरे दिन दूसरे स्थान पर पहुंचा दिया जाता है।
2019 के पिछले आम चुनाव के दौरान कैराना, जहाँ की मैं निवासी हूँ , की लोकसभा सीट हमारे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कुछ उग्र ध्रुवीकरण वाले भाषणों का अड्डा थी। इस बार मेरे सहकर्मी अश्वनी ने मुझे बताया कि जो कुछ भी प्रसारित करना है वह ऑनलाइन व्हाट्सएप पर भेजा जा रहा है। उत्तर प्रदेश में, हम स्थानीय लोग बिल्कुल भी उत्साहित नहीं है। यह एक ऐसा मुकाबला लगता है जिसका परिणाम पहले से ही तय है। वही सरकार वापस आएगी। आम आदमी चुनावी बूथों पर लाइनों में इंतजार कर रहे हैं या अपने लैपटॉप पर स्थितियो की समीक्षा कर रहे हैं जिसका कोई खास महत्व नहीं है। मैंने बड़े शहरों में अन्य पत्रकारों से बात की, जो सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और अभी भी इस भ्रम में हैं कि इस चुनाव का परिणाम पहले से तय नहीं है।
यह एक ऐसा भ्रम है जो दिल्ली से शामली तक पहुंचते -पहुँचते लगातार कम होता गया। इसने मुझे सत्ता को समझने का एक नया नज़रिया प्रदान किया है – यह कैसे बनती है और कैसे बिगड़ती है। 2004 में सभी को उम्मीद थी कि भाजपा जीतेगी लेकिन आश्चर्यजनक और अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन जीत गया था। लेकिन हर चुनाव एक जैसा नहीं होता और सत्ता हमेशा पांच साल की अवधि में हस्तांतरित नहीं होती। चुनावी प्रक्रिया सतत चल रही होती है। और हममें से जो लोग इन चीज़ों के बारे में लिखते हैं उन्हें अंतर बताने में सक्षम होना चाहिए।
कभी-कभी, धीरे -धीरे बढ़ता सत्तावाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को सेट करने से नहीं बल्कि सत्ता परिवर्तन की चाह के,दीर्घकालिक दृष्टिकोण और हर दिन किए जाने वाले कार्य से आता है। एक बार सत्ता में आने के बाद, निश्चित रूप से, मीडिया को खरीद कर संदेशों के माध्यम से अपने विचारों का प्रसारण करके , कठोर कानूनों और डराने धमकाने वाली पुलिस के माध्यम से और असहमति को अनदेखा कर के इस सत्तावाद को बढ़ाना आसान होता है। लोगों को ऐसा महसूस होता है कि अब वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं। हम देखते हैं कि सरकार के इशारे पर काम करने वाली सहयोगी एजेंसियां किस तरह विपक्ष को निष्क्रिय कर रही हैं।
अब, सत्ता मतदाताओं के हाथ में नहीं रह गई है। लोकतंत्र को ख़त्म करने का यह सबसे प्रभावी तरीका है। यह बीमारी कोविड की तरह अंदर ही अंदर है। यह खुद को आधिकारिक स्थानों पर प्रदर्शित नहीं करती है और इसे तब तक वहां नहीं ले जाया जा सकता जब तक कि इसके सूक्ष्म स्तर पर हमला न किया जाए।
वाशिंगटन डीसी में स्थित थिंक टैंक ‘प्यू” के शोध अध्ययन से हाल ही में पता चला है कि भारत के 85% लोग शीर्ष पर एक सर्वाधिकार संपन्न शासक चाहते हैं। दशक-दर-दशक प्रत्येक परिवार सामंती, पितृसत्तात्मक बनता जा रहा है, जिसमें असहमति के लिए कोई जगह नहीं है। बहुत कम लोग अपने पिता की आँखों में आँखें डालकर बात कर सकते हैं। अधिकतऱ लोग अपने माता-पिता और दादा-दादी की इच्छा से विवाह करते हैं। लोग चाहते हैं कि उनके पिता उन्हें बताएं कि उन्हें क्या करना है, कैसे निवेश करना है, कैसे शादी करनी है, कौन सी कार खरीदनी है और सबसे ऊपर – एक पिता-तुल्य तानाशाह जो उन पर से दबाव हटा सके।जब परिवार में असहमति का कोई स्थान नहीं है, तो यह असहमति अचानक हमारे राष्ट्रीय चुनाव में, पांच साल में एक बार कैसे सामने आ सकती है?
कोई भी सरकार से उम्मीद नहीं करता कि वह कुछ कर दिखाएगी। इसलिए कई लोग वोट नहीं देते। 2014 का चुनाव परिवर्तन और एक बड़े बदलाव के बारे में था, और 2019 का चुनाव एक नए उत्साह के बारे में था। 2024 का चुनाव प्रचार वादों की आपूर्ती के बारे में नहीं है। यह नीरस और शब्दहीन है। हो सकता है कि कई लोग मतदान के लिए जाएं ही नहीं। जो लोग जाएंगे वे असहमति के बावजूद बिना किसी बड़े बदलाव की उम्मीद के महान पितृसत्ता के समर्थन में एक बटन दबाएंगे।
लोकतंत्र की आड़ में तानाशाही इसी तरह ऑटो- पायलट पर काम करती है। जैसे आजकल के कई रिश्ते और शादियाँ। घर आने वाले लोगों के पास सब सुविधाएं हैं, अपनी दिनचर्या है लेकिन कोई उम्मीद नहीं।
इसके बावजूद हँसने, उम्मीद करने, यहाँ तक कि नाचने का भी कारण ढूंढा जा सकता है। इसके लिए बस कोशिश करने की जरूरत है। मैं आपको 1940 के दशक में ले चलती हूँ। क्या आप जानते हैं कि आरएसएस ने उस दशक में असम से मेघालय तक पूर्वोत्तर राज्यों में अपनी पहली शाखा स्थापित की थी? तो, 1946 में असम-बांग्लादेश सीमा पर एक सुनसान पहाड़ी पर स्थित एक व्यक्ति क्या करने की कोशिश कर रहा था? वह जनसंघ (भाजपा की पूर्ववर्ती) के लिए निकट भविष्य में चुनावी जीत की उम्मीद से काम नहीं कर रहा था। वह एक समय में एक कैडर बनाने की इच्छा से काम कर रहा था। सत्ता में धीमे , बहुत धीमे लेकिन जानबूझकर संरचनात्मक बदलाव हुए। आरएसएस और उसके राजनीतिक चेहरे – भाजपा को पूरी तरह से बदलाव लाने में लगभग सौ साल लग गए।
डिजिटल युग में, इस प्रवाह को उलटने में इतना समय नहीं लग सकता है। लेकिन इसके लिए हमें यह देखना होगा कि शक्ति कहां निहित है और उस पर कहाँ काम करने की जरूरत है। किसी बड़े खर्चीले चुनाव में नहीं, जिसका परिणाम पहले ही तय हो चुका है। जब हम रोजाना काम करेंगे तो सत्ता में बदलाव आएगा। हमें लोगों को अन्य विचारों पर विश्वास दिलाने का काम करना है। अंबेडकर के विचारों को मौका दीजिए। दिखाएँ कि कैसे हमारे मध्यवर्गीय जीवन और अस्तित्व के मतभेदों को ख़त्म करके समता और समानता की स्थापना की जा सकती है।
कहां ब्राह्मण जागृत हो कर कह रहे हैं, चलो चलें दलितों और मुसलमानों के बीच रहें ? यह शक्ति, संसाधनों, विचारों, वास्तविकताओं के पुनर्वितरण की दिशा में एक बदलाव होगा और यह शहरी उदारवादी अभिजात वर्ग को वह करने को मजबूर करेगा जो वे कहते हैं लेकिन व्यवहार में नहीं लाते हैं।
यदि हम उन संरचनात्मक सुधारों को करने का निर्णय लेते हैं, तो यह एक बड़ा बदलाव होगा। आप हिन्दुओं और मुसलमानों को उनके पूर्वाग्रह से उबरने और मिलजुल कर रहने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। जब रोजमर्रा के स्तर पर समुदायों का मेल – जोल हो और हमारे परिवारों में असहमति के लिए स्थान हो, तभी हम शीर्ष स्तर पर बदलाव की उम्मीद कर सकते हैं।
नियमित चुनावी अंतराल में सत्ता परिवर्तन तब तक नहीं होता है जब तक कि हर दिन सूक्ष्म स्तर पर गहन कार्य नहीं किया जाता है। और इसके लिए हमें जहां हम हैं वहां से अन्यत्र जाने की जरूरत है। ईद मुबारक।v4 जून का इंतज़ार मत करो, उठो और आगे बढ़ो। यह निश्चित रूप से मुक्तिदायक होगा।
रेवती लौल एक पत्रकार और कार्यकर्ता हैं और वेस्टलैंड बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक , ‘द एनाटॉमी ऑफ हेट’ की लेखिका हैं। वे उत्तर प्रदेश के शामली में रहती और काम करती हैं। वहां उन्होंने सरफरोशी फाउंडेशन नाम की एक एनजीओ की स्थापना की है।
रेवती लॉल का यह लेख मूल रूप से द वायर पर प्रकाशित हुआ था। पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।