अवधेश प्रधान जी के साथ ‘सीता की खोज’

गौरव: श्रृंखला के पाँचवें एपिसोड में आप सभी का स्वागत है। पिछले चार एपिसोड आप ‘द आइडम डिजिटल’ मैगज़ीन के YouTube चैनल पर देख सकते हैं। आज की पाँचवीं बातचीत में हमारे साथ अवधेश प्रधान जी हैं, जिनकी किताब ‘सीता की खोज’ पर हम बात करेंगे। सर, आपका स्वागत है।
अवधेश प्रधान: धन्यवाद।
गौरव: सर, शुरुआत करते हैं कि यह सीता कौन हैं जिनकी आप खोज कर रहे हैं, और आप इन्हें खोजने निकले क्यों?
अवधेश प्रधान: ‘सीता कौन हैं?’ यह प्रश्न तो कभी मन में उठा नहीं, क्योंकि हम जन्म से ही राम और सीता की कथाएँ सुनते रहे हैं, लीलाएँ देखते रहे हैं। तो वे बिलकुल अपने चिर-परिचितों की तरह ही राम की तरह सीता भी रही हैं। लेकिन उनकी खोज में जो निकलना पड़ा, उसके पीछे एक रोचक प्रसंग है कि प्रोफेसर सदा शाही और हम दोनों दरभंगा से जनकपुर गए थे। जनकपुर सीता की जन्मभूमि है। वहाँ से लौटते हुए हम लोग सीतामढ़ी भी गए थे। पूरी यात्रा में जो देखना-सुनना हुआ सो तो हुआ, लेकिन सीता पर एक अलग ढंग से सोचने का सिलसिला शुरू हुआ। वहीं प्रोफेसर शाही ने एक तरह से मुझको दावत भी दी कि आप सीता पर कुछ व्याख्यान दीजिए। कोरोना काल आया। उसी समय सीता पर मैंने लॉकडाउन के समय में चार व्याख्यान दिए थे। तब किताबों की दुकानें भी बंद चल रही थीं, पुस्तकालय बंद थे। अपने पास जो पुस्तकें थीं, उन्हीं के बीच जो सीता की भाव-मूर्तियाँ हैं, उन्हीं में सीता की खोज शुरू हुई।
जो हमारे लोकगीत थे, उनका एक बहुत बड़ा संग्रह किसी समय पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने किया था। कुछ दूसरे भी संग्रह आए, लेकिन अपने ढंग का वह एक अनोखा संग्रह है। तो लोकगीतों के बीच की भाव-मूर्ति तो हमने केवल उसी के भीतर देखी, लेकिन वाल्मीकि, महाभारत, भास, कालिदास, भवभूति और तुलसीदास – यह जो हमारी काव्य परंपरा है और उसके यह जो मुख्य मार्ग-चिह्न हैं, उस समय की सीमा में मैंने उन्हीं के भीतर सीता की खोज की और वह भी कम नहीं था। तो यह ‘सीता की खोज’ वास्तव में हमारी काव्य की साधु परंपरा और लोक परंपरा के बीच सीता की भाव-मूर्तियों की खोज है, और इसमें मुझे बहुत आनंद आया और बहुत सीखने को मिला। अपनी संस्कृति के बारे में, अपनी लोक संस्कृति के बारे में भी बहुत कुछ जानने को मिला।
गौरव: भगवती सीता के जीवन में किस उम्र में ऐसी कौन-कौन सी घटनाएँ हुईं? जैसे हम लोगों को यह तो पता है कि रामायण में कौन-कौन सी घटनाएँ हुईं मोटे तौर पर। पर वे अपनी उम्र के किस पड़ाव में थीं जब उनके साथ ये सब घटनाएँ हो रही थीं, जैसे शादी कब हुई, वनवास कब हुआ?
अवधेश प्रधान: यह वाल्मीकि के यहाँ इसका उल्लेख मिलता है। अरण्यकांड में अपहरण के समय जब साधु वेश में, काषाय वस्त्र पहने हुए, जटाजूट बाँधे हुए जब रावण पंचवटी में पहुँचता है और उस समय उसने उनके सौंदर्य की बहुत विस्तार से प्रशंसा करते हुए जब पूछा कि तुम कौन हो, किसकी हो, किस कारण इतने घनघोर जंगल में रह रही हो? तो सीता ने पहले तो फल-मूल देकर अतिथि का स्वागत किया। उसकी बातें आपत्तिजनक भी थीं, फिर भी सीता ने उसका प्रतिवाद जो नहीं किया, उसका कारण अद्भुत दिया है: ‘द्विजाति वेशण’, यानी कि वह ब्राह्मण वेशभूषा में था। इसलिए सीता ने उसे ब्राह्मणोचित सत्कार और सम्मान ही दिया। फिर यह सोचकर ही उसकी बातों का उत्तर दिया कि अगर उसकी बातों का उत्तर नहीं देते हैं, तो यह उसकी उपेक्षा और असत्कार भी होगा। इसलिए सीता बताती हैं।
उसी क्रम में उन्होंने बताया, “मैं जनकराज की कन्या हूँ। जब मेरा विवाह राम से हुआ – धनुष यज्ञ का भी ज़िक्र किया, धनुर्भंग का – और बताया कि उस समय मेरी उम्र छह वर्ष की थी और राम मुझसे सात साल बड़े थे। विवाह के बाद अयोध्या में हम लोग बारह साल साथ-साथ रहे। जब वनवास को हम चले, मेरी उम्र अठारह वर्ष थी।” यह सीता बतलाती हैं। इससे पता लगता है कि उसके बाद के वनवास के वर्ष जोड़ लीजिए और वहाँ से तत्काल अयोध्या आने के बाद कुछ समय बाद ही वे उम्मीद से रहती हैं और जब आसन प्रसवा हैं तो गर्भिणी हैं और गर्भ परिपक्व हो गया है, ऐसी दशा में उनका वनवास हुआ है। उसके कुछ ही समय बाद वाल्मीकि के आश्रम में बच्चे होते हैं, जुड़वाँ बच्चे, और उनकी किशोरावस्था में ही जब वे रामायण का गान करते हैं राम के यज्ञ के परिसर में आकर, उसी समय सीता का भूमि प्रवेश होता है। तो आप देखें तो सीता को बहुत कम समय मिलता है, और बहुत कम समय में ही वह अपने चरित्र का प्रभाव डालती हैं। तो राम कथा के अनिवार्य अंग के रूप में सीता चलती हैं, और राम के पूरे जीवन काल तक तो नहीं चलतीं, लेकिन उनका भूमि प्रवेश एक लंबे गीत की उन गूँज की तरह से है। राम चाहे जितने लंबे समय तक जिएँ, लेकिन सीता का वह प्रभाव, उनकी वह गूँज बनी रहती है। जब हम राम कथा पढ़ते हैं, तो उस अनुगूँज का अनुभव करते हैं।
गौरव: सर आपने अपनी किताब में यह भी बताया है कि तुलसीदास की जो रामचरितमानस है उसमें सीता की भूमि प्रवेश का उल्लेख नहीं है?
अवधेश प्रधान: तुलसीदास भी अपने ढंग की भाव-मूर्तियाँ गढ़ते हैं। चली आती हुई कथा के भीतर हज़ारों वर्षों तक हमारे यहाँ इतने कवि हुए, लेकिन अद्भुत बात है कि कलियुग के प्रत्येक युग में हर कवि ने अपनी कल्पना के ज़ोर से इस कथा में कुछ-न-कुछ परिवर्तन किया है। दक्षिण भारत में उसका एक रूप दिखाई देता है, लेकिन संस्कृत परंपरा में भी आप देखें तो अध्यात्म रामायण के आने के बाद मेरा अनुमान यह है कि लोक परंपरा का एक दबाव रहा होगा कभी कल्पना पर। यह लोक परंपरा का दबाव ही है कि भवभूति के यहाँ कथा तो कथा के जो मुख्य प्रसंग हैं अग्नि-परीक्षा और भूमि-प्रवेश, तो उसमें अग्नि-प्रवेश है। लेकिन उन्होंने अत्यंत क्रांतिकारी ढंग से ही कहा जाएगा, क्योंकि परंपरा से चली हुई कथा को उलट देना साधारण बात नहीं है।
लेकिन भवभूति ने राम और सीता के प्रेम को ही अपना मुख्य आधार बनाया। और सीता-राम का जो अनुताप है, वह उसमें एक बहुत बड़ी कथा है। अंत उसका उन्होंने राम और सीता के मिलन में दिखलाया है, जो किसी भी रामायण में नहीं है, उसके किसी संस्करण में नहीं है। यह भवभूति की देन है।
गौरव: किस सदी की रचना है भवभूति की, सर?
अवधेश प्रधान: भवभूति नौवीं शताब्दी। तो आप यह समझ लीजिए कि जो जनता के भीतर लोकमानस में सीता का भूमि प्रवेश यह जैसे स्वीकार नहीं होता और राम और सीता का जैसा अखंड प्रेम है, उनका अलग हो जाना भी स्वीकार नहीं होता। तो अपनी प्रतिभा के ज़ोर से, जो महावीर चरितम्है, रामायण का पूर्व भाग, वह महावीर चरितम् में उसमें भी उन्होंने घटनाओं को बदल दिया है। राम और सीता का वनवास मिथिला से ही हो जाता है विवाह के तत्काल बाद, और उनका जो विवाह है, वह धनुर्भंग वह बक्सर में ही हो जाता है। तो भवभूति ने बहुत चीजें बदली हैं। इसीलिए कहा जाता है कि उनके नाटकों में अद्भुत रस का चमत्कार ज़बरदस्त है, और उसको स्टेज करना बहुत कठिन रहा होगा अपने समय में।
बहरहाल, तुलसीदास के समय तक जो अध्यात्म रामायण का प्रभाव है, वह बहुत गहरा था। अध्यात्म रामायण में यह भूमि प्रवेश का प्रसंग नहीं है। अध्यात्म रामायण तुलसीदास ने यह दो प्रसंग उत्तरकांड से पूरी तरह निरस्त कर दिए हैं, और इससे तुलसीदास के एक मानस की विशेषता का पता चलता है। एक तो यह कि शंबूक वध बिलकुल नहीं है। जबकि शिव पार्वती से कहते हैं आरंभ में, “मैं तुमको पूरी कथा सुनाऊँगा, और उसमें यहाँ तक कि मैं तुम्हें यह भी बताऊँगा कि राम किस तरह से अपनी पूरी प्रजा के साथ जल में समा गए थे। उनकी जल समाधि का भी वर्णन करूँगा।” लेकिन यह सब प्रसंग बिलकुल नहीं आता। तो सीता का वनवास, सीता का भूमि प्रवेश और शंबूक वध यह रामचरितमानस में नहीं है। कोई चीज़ कथा का कोई प्रसंग कविता में न आना भी यह कवि की एक विशेष कल्पना का ही नहीं, बल्कि उसके चुनाव की ओर भी संकेत करता है। तुलसीदास ने जानबूझकर के यह चुनाव किया है। राम का जो रूप उन्होंने गढ़ा है, उसमें शंबूक वध नहीं आता। उसमें सीता वनवास की स्वीकृति नहीं है। भूमि प्रवेश की उसमें स्वीकृति नहीं है। तो यह एक बहुत बड़ी बात है और रामचरितमानस को जनता ने बिलकुल स्वीकार कर लिया, और कहीं से भी यह सवाल नहीं उठा कि यह प्रसंग उसमें क्यों नहीं? यह बहुत बड़ी बात है। तुलसीदास स्वीकृत करा ले गए। अपने समय में ही स्वीकृत करा ले गए। यह बहुत बड़ी बात है।
गौरव: किताब में शौर्य को एक अलग तरीके से परिभाषित किया है। आपने किताब में इस बात का भी ज़िक्र किया है कि हम लोग राम-रावण के युद्ध की तो बात करते हैं राम कथा में, पर उसके साथ ही जो रावण का सीता से द्वंद्व चल रहा था, जब उन्होंने सीता को बंदी बनाकर रखा हुआ था, हम उसकी चर्चा नहीं करते हैं। क्योंकि रावण उसमें भी परास्त हुआ, क्योंकि सीता ने अपनी उसमें रावण की किसी भी बात को माना नहीं और कष्ट वह झेलती रहीं। और एक चीज़ यह भी है कि जो राम कथा में हम लोगों को सुनने को मिलता है कि राम के साथ तो दिव्यास्त्र थे, उनके भाई थे, सेना थी और लोगों का सहयोग था। सीता के पास उनके चारित्रिक आत्मबल को छोड़कर रावण के साथ इस संघर्ष में और कुछ नहीं था। तो इसकी हम लोग उतनी बात क्यों नहीं करते हैं?
अवधेश प्रधान: यह आपने बहुत सही सवाल उठाया, क्योंकि सीता के बारे में यहाँ तक कहा गया कि वह बहुत दब्बू हैं, वह पति के केवल पीछे-पीछे चलना जानती हैं। एक कमज़ोर औरत के बतौर सीता को बहुत सारे आधुनिक चिंतकों ने इस रूप में उनकी छवि सामने रखी, लोगों के सामने रखी। उन्होंने ध्यान नहीं दिया कि वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास में सीता किस रूप में आती हैं। हनुमान से तो सीता का कोई परिचय नहीं था, लेकिन उसने देखकर अनुमान कर लिया यही सीता हो सकती हैं। उससे पहले हनुमान ने तुलसीदास के यहाँ वह वर्णन नहीं मिलेगा। सुंदरकांड पढ़ना हो तो वाल्मीकि का पढ़िए। अद्भुत प्रसंग है। रावण की रंगभूमि में जब प्रवेश करते हैं हनुमान, उससे पहले नाच-रंग हो चुका है और सब सुंदरियाँ वीणाएँ और अनेक साज-बाज हाथ में लिए हुए वैसे ही सो गई हैं, और उनके बीच रावण सोया हुआ है, और हनुमान को खोज है सीता की। एक ऐसी सीता है कि जिसको उसने कभी देखा नहीं है। और वह एक-एक चेहरे को देखता है, एक-एक चेहरे को देखता है। एक से एक सुंदर चेहरे हैं, लेकिन वह अनुमान करता है कि इतनी सजी-धजी सीता हो ही नहीं सकती। राम की पत्नी हो और वह राम से अलग होकर इतनी सजी-धजी हो, यह हो नहीं सकता। इतनी सुख की नींद सो रही हो, यह नहीं हो सकता। तो हनुमान की एक प्रतिभा यह है जिसमें वह देखते हैं कि इनमें से कोई सीता नहीं है। और अशोक वाटिका में जिसको देखते हैं, वहाँ उनकी प्रतिभा देखने में आती है जब वह सीता को पहचानते हैं। यह सीता हो सकती हैं।
जो वहाँ उपमाएँ आती हैं, जैसे जंगली कुत्तों से घिरी हुई एक हिरनी की तरह, और भी बहुत सारी जैसे कुहरे से बिलकुल घिरी हुई फसल की तरह, ओले से मारी हुई फसल की तरह। और उन्होंने कहा कि इनके शरीर पर जो वस्त्र है, इसका टुकड़ा तोड़-फोड़ के उसमें अपने गहने बाँध के उन्होंने किष्किंधा पर गिराए थे। सुग्रीव ने गठरी राम के सामने रखी। उस कपड़े का रंग और सीता की साड़ी का रंग एक है। और इसी तरह से सीता की उदासी, सीता का सब कुछ देखकर उनको यही सीता हो सकती हैं। और लौटने के बाद हनुमान ने जो बताया, छोटा सा प्रसंग है।
सीता के बारे में हनुमान ने निश्चय क्या किया? उन्होंने कहा कि ‘निमित्त मात्रम राम, निमित्त मात्रम रामस विजय तत्र भविष्यति‘ रावण से अगर विजय हुई तो उसमें राम केवल निमित्त होंगे। वाकई जो सीता हैं, वह विजय का आधार हैं। सीता का चरित्र जो उन्होंने देख लिया था हनुमान ने कि रावण अपने पूरे प्रताप के साथ आया है और वह धमका रहा है सीता को। उससे पहले इतने प्रसंग हैं प्रलोभन के। सीता जब कुटिया में बिलकुल अकेली हैं, तब प्रतिवाद करती हैं। जब उन्हें ज़बरदस्ती वह उठाकर विमान में चलता है, तब प्रतिवाद करती रहती हैं। पूरे रास्ते भर प्रतिवाद करती हैं। जब वह ज़बरदस्ती फिर अपना महल घुमाता है एक-एक करके और दिखलाता है कि देखो, इतनी भारी संपत्ति का स्वामी हूँ मैं। उस प्रलोभन के समय भी वह बतलाती हैं कि राम के लिए यह कुछ भी नहीं, राम से बढ़कर कुछ भी नहीं है।
दूसरी चीज़ कि सीता के चरित्र की कुछ विशेषताएँ हैं। अमीष त्रिपाठी की किताब के बारे में किसी ने मुझसे कहा कि इसे पढ़ना चाहिए, ‘सीता: द वॉरियर’। और मैंने उस किताब का जो कवर देखा तो मुझे बड़ी वितृष्णा हुई। हमने कहा कि कोई ऐसा भी सोच सकता है कि सारी ताक़त हथियार में होती है! क्या सीता ऐसे शक्तिशाली नहीं हैं? सीता का जो चारित्र्य बल है, उस बल से वाल्मीकि ने कहा है ‘सीता या चरितम् महत’। यह राम का चरित्र है और उसके साथ ही साथ कहा यह ‘सीता या चरितम् महत’ भी है। सीता के कारण यह महत्वपूर्ण है। सीता उसकी विजय का आधार हैं। आपने सही कहा कि राम के साथ तो लाव-लश्कर है, फ़ौज-फाटा है, विभीषण जैसा मंत्री है, सुग्रीव है, रीक्ष-वानर है, तमाम हैं, लक्ष्मण अपना भाई ख़ास नहीं। सीता तो अकेले प्रतिवाद कर रही थीं। एक अकेले व्यक्ति का सत्याग्रह, यह सीता का सत्याग्रह रावण के विरुद्ध, और उस समय के सबसे अत्याचारी और प्रतापी सत्ता का प्रतिवाद सीता अकेले करती हैं। तो यह चरित्र का बल किसी भी हथियार के बल से बहुत बड़ा है, और आज के समय में कहीं अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
मैं समझता हूँ कि यह बड़ी भोंडी समझ है कि सीता को जब तक हथियार लिए हुए न दिखाया जाए, तब तक उसको शक्तिशाली न समझा जाए। दूसरे, वह दब्बू नहीं हैं। वनवास में राम के साथ जाने का निर्णय सीता का अपना निर्णय है। वह वशिष्ठ का कहना नहीं मानतीं, अरुंधति का कहना नहीं मानतीं, सासों का कहना नहीं मानतीं, जितनी दूसरी समझाने वाली स्त्रियाँ हैं उनका, सुमंत का कहना नहीं मानतीं, राम का नहीं मानतीं। राम ने बीस श्लोकों में बतलाया कि वन में इतने-इतने कष्ट हैं, ‘ततो दुख तरम’ इससे अधिक बढ़कर दुख क्या हो सकता है? सीता उतने ही बीस श्लोकों में उत्तर देती हैं कि ये सारे के सारे कष्ट मेरे लिए बहुत भारी सुख का अनुभव होंगे अगर तुम मेरे साथ रहते हो, मैं कूट और कांसों-कुश-काँट को मैं रौंदती हुई आगे-आगे चलूँगी। तो यह एक बहुत बड़ी बात है सीता का वह प्रतिवाद, अपना स्वतंत्र विचार सामने रखना।
दूसरी चीज़, सीता के चरित्र में कुछ ऐसा है कि वह जहाँ भी रहती हैं, उनको उनका समर्थन करने वाले मिल जाते हैं। तमाम वन्य प्रकृति सीता के साथ, सीता के अपहरण के समय पूरा जंगल रो उठता है, वैसा वर्णन और कहीं नहीं है। जटायु जिस तरह से जूझ पड़ता है। झरने रो रहे हैं। राम जब देखते हैं तो मृग दौड़ कर बताते हैं कि सीता इसी दिशा में गईं। सीता की परछाईं पकड़ कर दौड़ते हैं। सिंह और व्याघ्र दौड़ते जाते हैं। जब लंका आती है तो उन्हें त्रिजटा सहयोग करती है जो पहरे पर लगाई है। पहरे की वही मुख्य है, और शरमा उन्हीं के बीच राक्षसी है जो सीता को बताती है कि यह जो कुछ रावण कर रहा है, यह सब नकली है। तीसरे विभीषण की कन्या है कला जो रहस्य की बातें आकर बता जाती है। तो सीता वहाँ रहते हुए भी मंदोदरी की सहानुभूति सीता के प्रति है। तो उस प्रतिकूल वातावरण में भी सीता के पक्ष में लोग हैं। तो यह सीता के चरित्र की बहुत बड़ी बात है। तो इसलिए मुझे लगा कि सीता को शक्तिशाली दिखाने के लिए उनके हाथों में हथियार थमाना, धनुष-बाण थमाना यह ज़रूरी नहीं है।

गौरव: जैसा आपने बताया, वाल्मीकि रामायण का सर क्या काल कहा जाता है?
अवधेश प्रधान: वाल्मीकि रामायण को राधा वल्लभ त्रिपाठी और कुछ और विद्वान भी 700 ईसा पूर्व की मानते हैं, और बौद्ध धर्म से पहले की, लेकिन उसके कई-कई संस्करण होते रहे हैं, और कुछ जगहों पर वहाँ जिस ढंग से बौद्ध धर्म की आलोचना है, उससे अनुमान होता है कि कुछ चीज़ें बौद्ध बुद्ध धर्म के बाद या बुद्ध के बाद भी जोड़ी जाती रही होंगी। इसलिए उसके संस्करण संभव है कि ईसा के सौ साल बाद तक भी होते रहे हों।
गौरव: अगर हम लोग पहले संस्करण की बात करें तो उससे लेकर तुलसीदास के रामचरितमानस तक करीब हम लोग दो हज़ार से ज़्यादा वर्षों की बातचीत कर रहे हैं राम कथा की जो प्रचलित है लोकमानस में।
अवधेश प्रधान: कुबेरनाथ राय तो इसकी परंपरा बहुत प्राचीन मानते हैं। वैदिक युग से मानते हैं, और उन्होंने रामायणी कथा के जो बीज हैं, उन बीजों को वैदिक साहित्य में खोजने में उन्होंने अथक परिश्रम किया है। इस दृष्टि से उनकी तीन किताबें पढ़ने योग्य हैं। जिसमें एक है ‘महाकवि की तर्जनी’, लेकिन दूसरी जो ‘त्रेता का साम’ है, वह अपने ढंग का अद्भुत अनुसंधान ग्रंथ है। वैसी पुस्तकें मराठी और बंगला में हो सकती हैं, लेकिन हिंदी में तो वैसी वह अकेली पुस्तक है। वह तीसरी पुस्तक जो उनकी मृत्यु के बाद आई, ‘रामायण महातीर्थम्’, तो वह उनकी एक बहुत दूसरी बड़ी महत्त्वाकांक्षा का प्रमाण है। तो एक ऐसा लेखक जिसने रामायण पर ही जीवन भर काम किया, उसे देखा जाना चाहिए।
गौरव: जैसा आप बता रहे हैं कि इन दो हज़ार वर्षों में हमने देखा कि राम कथा का एक स्वरूप बदला जिसमें तुलसीदास की रामचरितमानस तक हम केवल राम कथा उतनी ही जानते हैं जितनी राम और सीता साथ में हैं। क्या कारण है कि सीता इतने हज़ार वर्षों तक राम कथा के केंद्र में रहीं और आज भी प्रासंगिक हैं?
अवधेश प्रधान: हमारे लोकमानस में आप देखें तो सबसे पहले सीता और राम की जो जोड़ी है, वह आदर्श दांपत्य प्रेम की जोड़ी है। ब्याह और शादी में राधा-कृष्ण के गीत नहीं गाए जाते, सीताराम के और शिव-पार्वती के। तो जो दांपत्य प्रेम है, यह मानव सभ्यता की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। स्त्री और पुरुष के बीच का जो स्वाभाविक आकर्षण है, जो अवयविक है, देह स्तर का जो आकर्षण है, इस देह स्तर के आकर्षण को प्रेम के उज्ज्वल मूल्य में बदल देना, यह एक लंबे कालखंड में सभ्यता ने विकसित किया है। और ध्यान से देखें तो और वेद को प्रमाण मानें तो मानना होगा कि भारत में ही दांपत्य प्रेम को सबसे पहले एक आदर्श के रूप में उपस्थित किया गया। जो विवाह सूक्त है उसको लें। अभी पुस्तक वागीश शुक्ल की आई है तो ‘आओ पुरुषिका’ तो उसे देखा जाना चाहिए, और जो स्त्री और पुरुष का जो संबंध है, यह मानव सभ्यता के विकास की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। जो दांपत्य प्रेम है, उसी के आधार पर परिवार का स्थायित्व होगा, और स्थायी परिवार की आवश्यक और स्थायी परिवार आधार है स्वस्थ बच्चों के शारीरिक-मानसिक विकास की दृष्टि से। इसलिए जो भावी समाज है, उस दृष्टि से भी यह जो दांपत्य प्रेम है, यह हमारे सामाजिक विकास का आधार बनता है, और मैं समझता हूँ कि इसको पिछड़ा मूल्य नहीं कहा जा सकता किसी दृष्टि से भी।
तो हमारे लोकमानस में एक तो यह। दूसरी, उसकी परीक्षा सुख में नहीं होती। प्रेम की परीक्षा विशेष रूप से दांपत्य प्रेम की परीक्षा सुख में, भोग में, विलास में, समृद्धि में, अनुकूल परिस्थितियों में नहीं होती। उसकी परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों, दुख में, विपदा में, कष्ट में होती है। और यह जो सीता मन में भी साथ-साथ जाती हैं।
यह इस हद तक प्रतिष्ठित थी कि लोकमानस का यह प्रभाव ही है जिसने अकबरी दरबार को प्रभावित किया। अकबरी दरबार के सौंदर्य बोध को प्रभावित किया। इसीलिए जो राम टका मिलता है जो हमारे भारत कला भवन में भी है, उस राम टका सिक्के के एक तरफ राम और सीता वन को जाते हुए अंकित हैं और लिखा हुआ है ‘राम सिय भात’। तो ‘भात’ कहते हैं चित्र को, राम-सीय-भात। तो यह दांपत्य प्रेम मुख्य है और उसी के भीतर कष्ट सहित श्रोता और सदाबहार प्यार, लंबे समय तक हर परिस्थिति में बना रहने वाला जो प्यार है, वह एक बहुत बड़ी चीज़ है। जहाँ बच्चे को यह भरोसा हो स्कूल से चलते समय कि मेरी माँ घर पर होगी, मेरे पिता होंगे। पति को यह भरोसा हो कि अगर कहीं हमारा एक्सीडेंट भी हो जाएगा तो हमको लोग उठा लेंगे, हमको लोग छोड़ नहीं देंगे। इन सब चीज़ों का आधार प्रेम है। दांपत्य प्रेम का विस्तार बहुत बड़ा है। उसी के भीतर संतति का प्रेम है। उसी आधार पर फिर सामाजिक संगठन पूरा का पूरा खड़ा है। इसलिए मैं समझता हूँ कि इतने लंबे समय से राम और सीता की जोड़ी लोग आशीर्वाद भी देते हैं राम और सीता की जोड़ी की तरह बने रहने की। यह लोकमानस में लंबे समय तक जो छवि है, बहुत बड़ी चीज़ है। मैं नहीं समझता कि किसी यूरोपीय पश्चिमी काव्य के किसी नारी चरित्र को ऐसा सौभाग्य मिला।
गौरव: आप क्या देखते हैं कि इस पर आपने प्रकाश डाला। आज के इक्कीसवीं सदी में, इसे हम लोग के देखने वाले ऑडियंस या जो लोग सुन रहे हैं, उसमें बहुत सारे यंग लोग भी हैं। हम लोग भी जैसे लोग हैं, तो हम लोग सीता के चरित्र से क्या प्रेरणा ले सकते हैं?
अवधेश प्रधान: एक तो यह कि मैं उस चीज़ पर अटल हूँ कि जो दांपत्य प्रेम है, जिसके लिए अवसर भी कम होते जा रहे हैं और वह दांपत्य प्रेम संकटग्रस्त भी होता जा रहा है। संबंध-संबंधों में विच्छेद की घटनाएँ बढ़ रही हैं। तो जिस चीज़ का अभाव होता जाता है, उसकी ज़रूरत बढ़ती जाती है। इसलिए वहाँ मैं अडिग हूँ। दूसरी चीज़, लड़कियाँ यह अच्छी बात है कि लंबी उम्र तक शादी नहीं करतीं। शादी को कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं मान रही हैं। सार्वजनिक जीवन में आ रही हैं। बड़ी बहादुरी के साथ आ रही हैं। तो ऐसे में स्वतंत्र विवेक, विचारों का स्वतंत्र। सीता में भय और प्रलोभन के आगे झुकने वाली बात नहीं है। क्योंकि ऐसे समय में जब सार्वजनिक जीवन में आगे आएँगे तो भय के आगे, प्रलोभन के आगे तरह-तरह की भ्रांतियाँ हैं, और बाज़ार जिसने विचारों को बिलकुल तहस-नहस कर दिया है। तो ऐसी स्थिति में सीता स्वतंत्र विवेक का भी प्रतीक हैं, जहाँ वह अपने संकल्प पर दृढ़ रहें, अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहें और वह कूट और कुश और काँट को कुचलते हुए आगे बढ़ने को तैयार रहें। किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में न झुकना, यह नाम सीता का है, और मैं समझता हूँ कि इसमें उसको इससे अधिक प्रेरणा मिलेगी।
यह साक्षात्कार एक वीडियो साक्षात्कार के रूप में प्रकाशित किया गया था और हिंदी में इसका प्रतिलेखन अंशिका भारद्वाज द्वारा किया गया है। नीचे साक्षात्कार देखें।