आर्थिक अनिवार्यता के रूप में लैंगिक समानता: भारत की विकास रूपरेखा

लैंगिक समानता की ओर वैश्विक यात्रा एक रैखिक मार्ग नहीं रही है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में यह यात्रा कभी उल्लेखनीय प्रगति तो कभी प्रतिरोध और प्रतिघात के दौर से गुजरी है। हाल के वर्षों में यह प्रतिघात कई क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से सामने आया है — अमेरिका में प्रजनन अधिकारों पर प्रतिबंधों से लेकर यूरोप के कुछ हिस्सों में लैंगिक हिंसा से सुरक्षा से जुड़े अधिकारों में कटौती तक। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में हर चार में से एक देश ने महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिघात की सूचना दी है।
भारत में यह प्रतिरोध विभिन्न रूपों में सामने आया है — जैसे कि लगातार बना हुआ लैंगिक वेतन अंतर, आर्थिक विकास के बावजूद घटती महिला श्रम बल भागीदारी और ऐसी सामाजिक मान्यताएँ जो महिलाओं की आर्थिक गतिशीलता को सीमित करती हैं। यह प्रतिघात विशेष रूप से तब तीव्र हो जाता है जब देश सामाजिक परिवर्तन या आर्थिक अनिश्चितता के दौर से गुजरते हैं, क्योंकि पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को उस समय स्थिरता का प्रतीक मान लिया जाता है।
यह प्रतिरोध उन विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए विशेष रूप से चिंताजनक है, जैसे कि भारत, जहाँ लैंगिक समानता अपार आर्थिक संभावनाओं को साकार कर सकती है, लेकिन सांस्कृतिक और संस्थागत रूप से गहराई से जड़ें जमाए अवरोधों का सामना करती है। इस प्रतिघात को समझने और उसका समाधान करने के लिए ऐसे आर्थिक ढाँचों की आवश्यकता है जो समानता को विकास लक्ष्यों से जोड़ते हों।
लैंगिक समानता से देशों को व्यापक आर्थिक लाभ होते हैं। मैकिंज़ी ग्लोबल इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि यदि महिलाओं की समानता को बढ़ावा दिया जाए तो वैश्विक जीडीपी में 12 ट्रिलियन डॉलर तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। विशेष रूप से भारत में, यदि महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित की जाए तो जीडीपी में 770 बिलियन डॉलर की बढ़त संभव है! ऐसे आर्थिक ढाँचे इन संभावित लाभों का उपयोग सांस्कृतिक और संस्थागत प्रतिरोध को पार करने के लिए कर सकते हैं।
भारत के लिए एक बहुआयामी आर्थिक ढाँचा — जो लैंगिक समानता के प्रति किसी भी प्रतिरोध का सामना कर सके — की शुरुआत उन नीतियों में जेंडर-रेस्पॉन्सिव बजटिंग (GRB) को मजबूती से स्थापित करने से होनी चाहिए। भारत में GRB को 2005 से लागू किया गया है, लेकिन इस दृष्टिकोण को सशक्त बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान आवंटनों से आगे बढ़कर सभी नीतियों को लैंगिक दृष्टिकोण से देखा जाए।
साथ ही, GRB के कार्यान्वयन को राज्य और स्थानीय स्तर तक विकेंद्रीकृत करने से देशभर से अधिक सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, जवाबदेही की स्पष्ट व्यवस्था, लक्ष्य निर्धारण और परिणामों को मापने की प्रक्रिया को स्थापित करना आवश्यक है, जिसमें महिलाओं के संगठन जैसे विविध हितधारकों की बजट निर्माण प्रक्रिया में भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
वित्तीय समावेशन और संपत्ति के स्वामित्व का अधिकार देश में लैंगिक समानता को सक्षम बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कारक हैं। हम सभी जानते हैं कि महिलाओं का वास्तविक आर्थिक सशक्तिकरण तभी संभव है जब उन्हें वित्तीय रूप से स्वतंत्र बनने का अवसर मिले और वे जन धन योजना से आगे बढ़कर औपचारिक बैंकिंग सेवाओं तक पहुँच प्राप्त करें। वित्तीय समावेशन का सही रूप तब संभव होगा जब महिला उद्यमियों के लिए ऋण प्रक्रिया सरल बनाई जाए। महिलाओं की आवश्यकताओं और जीवन की परिस्थितियों के अनुरूप विशेष वित्तीय उत्पाद तैयार किए जाने चाहिए। संपत्ति स्वामित्व को समुदाय स्तर पर समर्थन देने के लिए संपत्ति अधिकारों में सुधार और उत्तराधिकार कानून के प्रभावी क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
भारत की महिला श्रम बल भागीदारी, आर्थिक विकास के बावजूद, घटकर लगभग 40% रह गई है। ‘विकसित भारत 2047’ के 70% महिला कार्यबल भागीदारी के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अनेक पहलें आवश्यक हैं — जैसे कि महिलाओं को रोजगार देने वाले व्यवसायों के लिए कर प्रोत्साहन, विशेष रूप से गैर-पारंपरिक क्षेत्रों में। साथ ही, बाल देखभाल और घरेलू कार्यों पर सब्सिडी देकर महिलाओं पर अनपेड केयर वर्क का बोझ कम करना, लचीली कार्य नीतियों और समान वेतन नियमों को लागू करना भी आवश्यक है।
महिलाओं की कार्यक्षमता बनाए रखने के लिए सुरक्षित, सुलभ और किफायती परिवहन विकल्प अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इसलिए, परिवहन अवसंरचना में पर्याप्त निवेश से महिलाओं की आवाजाही और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है, जिससे अधिक महिलाएँ रोजगार की ओर अग्रसर हो सकें।
लक्षित शिक्षा और कौशल विकास में निवेश की आवश्यकता है, जहाँ हम संसाधनों को तेज़ी से स्थानांतरित करके शिक्षा में मौजूद अंतर को, विशेषकर STEM (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) क्षेत्रों में, दूर कर सकें। महिलाओं के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों का निर्माण किया जाना चाहिए — विशेष रूप से उन महिलाओं के लिए जो कार्यबल में पुनः प्रवेश करना चाहती हैं। IWWAGE की ‘Women in STEM’ रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर STEM क्षेत्रों में लैंगिक समानता सुनिश्चित करने से एक अधिक संतुलित कार्य वातावरण निर्मित हो सकता है, जिससे पुरुषों और महिलाओं के बीच कौशल अंतर को कम किया जा सकता है, महिलाओं की रोजगार दर में वृद्धि हो सकती है और व्यावसायिक पृथक्करण को घटाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, डिजिटल साक्षरता कार्यक्रमों को सब्सिडी देकर महिलाओं की पहुँच बढ़ाना और उन्हें भविष्य की अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के लिए तैयार करना आवश्यक है।

हालाँकि, इन सभी योजनाओं की प्रभावी कार्यप्रणाली के लिए, हमें आर्थिक क्षेत्रों में व्यापक रूप से लिंग-आधारित डेटा संग्रह की आवश्यकता है — जो वर्तमान में पर्याप्त रूप से नहीं हो रहा है। उदाहरण के लिए, सामान्यतः आर्थिक डेटा (जैसे कि भूमि स्वामित्व, परिसंपत्तियों का वितरण) घरेलू स्तर पर एकत्र किया जाता है, जिसमें लिंग-आधारित जानकारी केवल मुखिया के रूप में सीमित रहती है, जो अधिकतर मामलों में पुरुष होते हैं। इसके अतिरिक्त, हालिया सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भले ही ग्रामीण क्षेत्रों में 24.2% महिलाएँ कृषि कार्यों में स्वरोजगार में लगी हैं, लेकिन नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में केवल 2.9% ग्रामीण महिलाएँ और 11% शहरी महिलाएँ ही कार्यरत हैं।
इसके साथ ही, यह भी आवश्यक है कि नीतियों के प्रभाव का आकलन नियमित रूप से किया जाए, जिसमें मानकीकृत लैंगिक संकेतकों का उपयोग हो। हमें यह भी विचार करना चाहिए कि अनपेड केयर वर्क (गृहकार्य और देखभाल संबंधी कार्य) का आर्थिक मूल्यांकन राष्ट्रीय खातों में कैसे शामिल किया जाए। साथ ही, लैंगिक असमानता को प्रभावित करने वाले अंतर्विभाजक (intersectional) कारकों पर अनुसंधान कार्यों को तेज़ी से बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
भारत में लैंगिक समानता को वास्तव में सक्षम करने के लिए यह आवश्यक है कि हम मौजूदा ढाँचों का उपयोग करें जो क्षेत्रीय विविधता को ध्यान में रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा दे सकें। उदाहरण के लिए, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (MWCD) सभी लैंगिक समानता पहलों के लिए एक शीर्ष संस्था के रूप में कार्य कर सकता है, विशेष रूप से मिशन शक्ति जैसी योजनाओं का संचालन कर, विभिन्न मंत्रालयों और शासन स्तरों के बीच समन्वय सुनिश्चित करने में।
मिशन शक्ति के अधिकार क्षेत्र को मजबूत करने का एक प्रमुख लक्ष्य यह हो सकता है कि विभिन्न मंत्रालयों (जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास) में लैंगिक उत्तरदायी बजटिंग (Gender-Responsive Budgeting) को एकीकृत किया जाए और मापनीय परिणामों के माध्यम से जवाबदेही को सुनिश्चित किया जाए। इसके अतिरिक्त, नीतियों के समन्वय हेतु अंतर-मंत्रालयीय कार्यबल गठित किए जाने चाहिए — उदाहरणस्वरूप, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की योजनाओं को श्रम मंत्रालय की कौशल विकास पहलों से जोड़ा जा सकता है ताकि महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी को बढ़ाया जा सके।
हमें राज्य-स्तरीय सफल मॉडलों से सीख लेकर विकेंद्रीकृत कार्यान्वयन को सक्षम करना चाहिए ताकि अधिक महिला-नेतृत्व वाली पहलों को बढ़ावा मिले। साथ ही, समुदाय स्तर पर पुरुषों के साथ संवाद आधारित कार्यक्रमों (Male Advocacy Programs) को बढ़ावा देकर पितृसत्तात्मक सोच को बदलने के प्रयास किए जाने चाहिए। इसमें पुरुषों और लड़कों को भी सक्रिय रूप से शामिल किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
ऊपर प्रस्तुत बहुआयामी आर्थिक ढाँचा, लैंगिक समानता के प्रति प्रतिरोध का रणनीतिक रूप से सामना करने की दिशा में एक प्रभावी मार्गदर्शन प्रदान करता है — और यह दर्शाता है कि लैंगिक समानता केवल एक सामाजिक आदर्श नहीं, बल्कि एक ठोस आर्थिक उत्प्रेरक है। भारत के लिए, इन परस्पर जुड़ी रणनीतियों — जैसे कि मज़बूत जेंडर-रेस्पॉन्सिव बजटिंग, वित्तीय समावेशन, महिला कार्यबल भागीदारी में वृद्धि, और व्यापक लैंगिक डेटा संग्रह — को लागू करना लैंगिक समानता को यथार्थ में बदल सकता है।
इस दृष्टिकोण की सफलता सरकार, निजी क्षेत्र और समुदायों के बीच समन्वित प्रयासों पर निर्भर करती है, यह मानते हुए कि महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण सिर्फ सामाजिक न्याय का मुद्दा नहीं, बल्कि भारत के सतत विकास और वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। आगे का रास्ता संस्थागत सुधार और सांस्कृतिक परिवर्तन — दोनों की माँग करता है, जिसमें आर्थिक ढाँचे प्रतिरोध और प्रगति के बीच सेतु का कार्य करेंगे।