जनगोपाल और भक्ति परंपरा का 21वीं सदी के भारत में महत्व
यह चर्चा एक नई श्रृंखला “बुक बैठक” का हिस्सा है, जो The AIDEM और क, द आर्ट कैफे, वाराणसी के बीच एक सहयोग है, जिसमें समकालीन भारत से संबंधित पुस्तकों और लेखकों पर चर्चा की जाती है।
जनगोपाल 16वीं सदी के भक्ति परंपरा के कवि थे, जो अपने गुरु दादू दयाल के प्रति अपनी निष्ठा के लिए जाने जाते हैं। उनका पस्तक , ‘दादू जनम लीला’, दादू दयाल के जीवन पर प्रकाश डालता है और सामाजिक मानदंडों पर मजबूत विरोधाभासी दृष्टिकोण को दर्शाता है।
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने डेविड एन लॉरेन्जेन के साथ मिलकर “सो सेज़ जनगोपाल: द लाइफ एंड वर्क ऑफ ए भक्ति पोएट ऑफ अर्ली मॉडर्न इंडिया” नामक एक पुस्तक लिखी है, जो जनगोपाल के जीवन और लेखन को गहराई से खोजती है। इस इंटरव्यू में, अग्रवाल जनगोपाल के विचारों और भक्ति परंपरा की समकालीन भारत में प्रासंगिकता पर चर्चा करते हैं, जिसमें मुक्ति, सामाजिक समानता, और रूढ़िवादी सोच के प्रतिरोध के विषयों पर जोर दिया गया है।
गौरव तिवारी: सर, हम लोग अब आपकी जो नई किताब आई है “सो सेस जन गोपाल (So Says Jan Gopal)” उसके बारे में बातचीत करते हैं। यह किताब लिखने का सर क्या मोटिवेशन था?
पुरुषोत्तम अग्रवाल: असल में देखिए, जन गोपाल बहुत आरंभिक आधुनिक कालीन या मध्यकालीन दौर के बहुत ही महत्वपूर्ण फिगर हैं।
गौरव तिवारी: ये कौन सा दौर है सर?
पुरुषोत्तम अग्रवाल: मैं बताता हूं। जन गोपाल सत्रहवीं सदी में सक्रिय थे और प्रसिद्ध संत दादू दयाल के शिष्य थे। दादू जी का निधन माना जाता है कि 1603 में हुआ था। जन गोपाल जी ने “दादू जन्म लीला” नाम से दादू जी की जीवनी 1620 में लिखी। हिंदी साहित्य के विद्यार्थी जानते हैं कि उस दौर के संतों के जीवन चरित्र में से कोई भी ऐसा नहीं है जो उनके किसी डायरेक्ट डिसाइपल ने लिखा हो। अनंत दास ने कई जीवन चरित्र लिखे, पर वह ना तो कबीर के समय में थे ना नामकबीर के 80 साल बाद लिखे। “भक्त माल” भी उन लोगों के बाद लिखे गए। लेकिन “दादू जन्म लीला” अकेला जीवन चरित है जो उस व्यक्ति ने लिखा है जो जीवन चरित्र के नायक के साथ कम से कम 18 साल रहा।
दूसरी बात, इसमें मुहावरा वही है चमत्कार का, लेकिन इसमें आरंभिक रेशनल स्केप्टिसिज्म की मिसालें हैं। तीसरी और अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह कि इसमें घटनाओं के वर्णन तिथियों के साथ मिलते हैं और ऐतिहासिक चरित्रों के नाम भी सही तरह से हैं। यह एक ऐसा जीवन चरित्र है जो सत्रहवीं सदी में लिखा जाकर भी आधुनिक जीवन चरित्र की विशेषताएं रखता है।
दादू और अकबर के संवाद का वर्णन भी इसमें मिलता है। बहुत से लोग मानते हैं कि दादू और अकबर की मुलाकात हुई नहीं है, लेकिन मेरा और डेविड का मानना है कि हुई है और कारण हमने इसमें बताए हैं। जब अकबर ने दादू को मिलने का निमंत्रण भेजा, तो अकबर ने दादू को अपने समय का कबीर कहा।
आजकल यह फैशन चल पड़ा है कि कबीर, तुकाराम आदि मार्जिनल लोग थे। मैंने अपनी किताब “अकथ कहानी प्रेम की” में बताया है कि ये लोग मार्जिनल नहीं थे। हिंदुस्तानी समाज में कभी भी नहीं। जन गोपाल, जब दादू की अकबर से संवाद की बात बताते हैं तो उसमें दादू किसी भी अथॉरिटी को कोट नहीं करते, ना वेद, ना पुराण, ना कुरान। केवल कबीर को कोट करते हैं और वह प्रमाणिक साखिया ग्रंथावली में मिलती हैं।
इस पुस्तक में दादू और मान सिंह के संवाद का भी उल्लेख है। मान सिंह से लोगों ने शिकायत की थी कि दादू ने हिंदू-मुसलमान दोनों को बिगाड़ दिया है। दादू की बेटियों की उम्र बहुत हो गई है और उनका विवाह नहीं हो रहा है। दादू बाल विवाह की आलोचना के लिए किसी स्रोत को कोट नहीं करते, बल्कि अनुभव की अपील करते हैं। दादू कहते हैं कि बच्चियां जिनका जल्दी विवाह कर देते हैं और विधवा हो जाती हैं, वे गलत राह पर चल पड़ती हैं और परिवार को संकट होता है।
जन गोपाल का दादू का कहना है कि इस समाज के मैल प्रैक्टिस की आलोचना के लिए किसी भी अथॉरिटी को कोट नहीं करना चाहिए। ही अपील्स टू योर एक्सपीरियंस एंड योर एसेंशियल ह्यूमन रेलिटी।
गौरव तिवारी: सर, ये क्यों जन गोपाल को महत्वपूर्ण बनाता है कि वो किसी अथॉरिटी को कोट नहीं करते? क्योंकि अभी जैसे आज हम लोग देखेंगे अखबार में आर्टिकल पढ़ें कहीं पर भी, तो अक्सर हम लोग पाते हैं कि किसी दूसरे प्रोफेसर को कोट करते हैं। संस्कृत में तो कुछ भी उल्टा-सीधा लिख दो, अगर कल का लिखा हुआ भी श्लोक रहेगा, तो उसको पौराणिक मान लिया जाता है।
पुरुषोत्तम अग्रवाल: बिल्कुल सही। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है, “आ सिन्धु-सिन्धु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका: पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरिति स्मृत:”। सावरकर ने हिंदुत्व नाम की अपनी किताब के शुरू में दिया है और बहुत सारे लोग मानते हैं कि यह पुराण का श्लोक है, लेकिन सावरकर जी का अपना रचा हुआ है, यह पुराण में नहीं मिलता। यह इसलिए महत्वपूर्ण है। बहुत अच्छा सवाल है।
देखिए, हम उस समय के संदर्भ को समझें जब आप सत्रहवीं सदी में कोई बात कर रहे हैं। उस समय जिस तरह से अथॉरिटी चलती थी, स्क्रिप्चर चलता था, उसको चैलेंज करना बहुत महत्वपूर्ण होता था। यह दुनिया भर में, यूरोप में भी आप देखिए, जो चर्च की अथॉरिटी थी, उसको आप चैलेंज कर रहे हैं। और चर्च फादर्स की जो पूरी ट्रेडीशन है, उसको चैलेंज कर रहे हैं। आप उसके भीतर आर्गू नहीं कर सकते।
मिसाल के तौर पर, अगर कोई कहे कि धरती गोल है, और चर्च फादर्स कहें कि टॉलमी ने बता दिया है कि धरती चपटी है, आप किसको कोट करेंगे? जब एपिस्टमोलॉजी में पैराडाइम शिफ्ट होता है, तो प्रचलित पैराडाइम की अथॉरिटी अपर्याप्त हो जाती है।
सामाजिक संदर्भ में अगर बात करें तो, 16 साल की बच्ची का विवाह नहीं होना चाहिए, या 17-18 साल की उम्र में बच्ची विवाह कर लेती है, उसे जिंदगी भर अकेलापन और संत्रास झेलना पड़ता है। इसके लिए किसी अथॉरिटी को कोट करने की जरूरत नहीं है। जन गोपाल जो कह रहे हैं और जो मैं खुद भी कह रहा हूं, मान लीजिए कि मेरे सामने ऐसी कोई स्थिति आ जाए, तो मुझे किसी अथॉरिटी को कोट करके सिद्ध करने की जरूरत क्यों होनी चाहिए कि जन्म से कोई ऊंचा या नीचा नहीं होता?
आपके विश्वास के आधार पर कोई काफिर और कोई मोमिन नहीं होता। आप मेरे अकीदे को मानें या ना मानें, अगर आप हजरत मोहम्मद को अल्लाह का आखरी पैगंबर नहीं मानते, तो क्या मुझे जीने का अधिकार नहीं देंगे? अब मेरा जन्म किसी जाति में हो गया है, तो आप मुझे उस जाति में जन्म के कारण अछूत मानना चाहते हैं, क्यों मानना चाहते हैं?
इसलिए किसी अथॉरिटी को कोट करने की बजाय, जो सहज न्याय बोध है, उसे क्यों नहीं अपील किया जाए? विवेक और न्याय की महत्ता को कम नहीं करना चाहिए।
जॉन रोल्स, जो एक दार्शनिक हुए हैं 20वीं सदी में, उन्होंने थ्योरी ऑफ़ वेल ऑफ़ इंग्नोरैंस दी। सबसे रोचक यह है कि आप एक समाज की कल्पना कीजिए जैसा समाज आप चाहते हैं और आपको यह नहीं मालूम है कि आप स्त्री हैं या पुरुष हैं, काले हैं या गोरे, हिंदुस्तानी हैं या चीनी। अब कल्पना कीजिए कि आपने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें औरतों को औकात में रहना चाहिए। और जब वो पर्दा हटे और मालूम पड़े कि आप खुद औरत हैं, तो आपको कैसा लगेगा?
बहुत इंटरेस्टिंग है। उन्होंने सही याद दिलाया कि कुछ सहज, इनेट, इन्हेरेंट सेंस ऑफ जस्टिस हम सब मनुष्यों में होता है। उसी को गांधी जी अंतरात्मा की आवाज कहते थे, मैं अंतरात्मा की आवाज के मुहावरे का इस्तेमाल नहीं करता, लेकिन वह एक चीज होती है। जन गोपाल के दादू उसको अपील कर रहे हैं।
गौरव तिवारी: सर, इस बात पर ये कि फिर मतलब सवाल पूछें कि भक्ति है क्या, और जो यह भक्ति ट्रेडीशन भक्ति कवि कहे जाते हैं, आज के दौर में एआई का अगर इसको हम दौर करें, तो आज के दौर में यह क्यों रिलेवेंट है? जो हिंदी एकेडमिक्स के बाहर लोग काम कर रहे हैं, एक साधारण पाठक है, उसको क्यों भक्ति के बारे में जानना चाहिए? क्यों कबीर जरूरी है उसके लिए या कबीर जरूरी हैं भी की नहीं?
पुरुषोत्तम अग्रवाल: बिल्कुल सही बात है, बहुत अच्छा सवाल। मैं आमतौर से अपने आप से पूछता हूं और अपने साहित्य और इतिहास के विद्यार्थियों के सामने रखता हूं। भक्ति की अपनी बात करें, तो भक्ति के सिलसिले में दो बातें समझनी चाहिए। अगर आप भक्ति का इतिहास देखें या भक्ति का हिस्टॉरिसिटी देखें, तो भक्ति का मूल अर्थ होता है पार्टिसिपेशन। अगर आप पुराने उदाहरण देखें, लौकिक संस्कृत में किस तरह इनका उपयोग होता था, अगर आप आस्क को देखें और पाणिनी को देखें, तो भक्ति का अर्थ होता है पार्टिसिपेशन और भक्त का अर्थ होता है पार्टिसिपेंट।
जैसे व्यास के अनुसार, इंद्र और अग्नि ये दोनों एक दूसरे के भक्त हैं, जिसका मतलब यह है कि यज्ञ में अगर कुछ अर्पित करेंगे, भले ही आप इंद्र के नाम अर्पित करें, उसका हिस्सा अग्नि को भी मिलेगा, पार्टिसिपेंट शेयरहोल्डर।
लक्ष्मण स्वरूप ने जो अनुवाद किया है, उसमें शब्द का इस्तेमाल किया “सरल एंड कंपनी”। पाणिनी के बारे में बात करें, तो वह एक डिस्क्रिप्टिव ग्रैमर है जो भाषा के उपयोगों का वर्णन करती है। एक बहुत महत्त्वपूर्ण किताब है, वासुदेव शरण अग्रवाल की “पाणिनी कालीन भारतवर्ष,” जो आपकी यूनिवर्सिटी(बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी) के लेजेंड प्रोफेसर थे।
पाणिनी के यहां भक्ति और भक्त शब्द का प्रयोग अनुराग के अर्थ में होता है, प्रेम और लगाव। अब आप देखें, भक्ति का एक टेक्निकल मीनिंग हो गया भगवान का भक्त, लेकिन हम देशभक्त भी कहते हैं, राज भक्त भी कहते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि “आप कुछ भी खाते पीते रहिए, हम तो कॉफी के भक्त हैं, दुनिया भर की चीजें एक तरफ, हम तो पूरी के भक्त हैं।” तो यह भक्ति शब्द अनुराग और लगाव को सूचित करता है।
इसीलिए आजकल के पॉलिटिकल डायलॉग में जो भक्ति शब्द इस्तेमाल होता है, उस पर ध्यान न देते हुए, भक्ति का सामान्य अर्थ ब्लाइंड लव के रूप में होता है। आप देखें, ऐतिहासिक रूप से यह सामान्य अर्थ धीरे-धीरे एक तरह के समर्पण में तब्दील हो गया। 12वीं-13वीं सदी में आकर नामदेव, उनके बाद कबीर, तुकाराम इन संतों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह था कि इन्होंने भक्ति के पुराने पार्टिसिपेशन वाले अर्थ को पुनः खोजा। यहाँ समर्पण का अर्थ है युद्ध में परास्त हुए सैनिक का समर्पण, प्रेम का समर्पण। युद्ध में परास्त सैनिक भी सरेंडर करता है और आप अपने प्रेम के लिए भी सरेंडर करते हैं – स्त्री के प्रेम के लिए, पुत्र के प्रेम के लिए, पत्नी के प्रेम के लिए।
नामदेव से उस स्थिति की शुरुआत मानी जाती है क्योंकि अनंत दास अपनी “नामदेव परिचय” में नामदेव को कलयुग का प्रथम भक्त बताते हैं। उनके अनुसार, नामदेव पहले भक्त थे जिन्होंने हरि को अपने वश में कर लिया।
नामदेव के यहां भक्ति फिर से पार्टिसिपेशन के रूप में प्रकट होती है। भगवान के साथ रिश्ता बराबरी का है, तो समाज में जन्म आधारित ऊंच-नीच को कैसे सही माना जा सकता है? कबीर की एक पंक्ति है: “तुम कत ब्राह्मण हम कत शूद, हम कत लोहू तुम कत दूध।” यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है और इसका कोई स्क्रिप्चरल जवाब नहीं है। अगर हम जन्म से ही ऊंचे या नीचें होते, तो इसका ठोस आधार होना चाहिए।
मिसाल के तौर पर, अंग्रेजी में “ब्लू ब्लड” का मुहावरा है, जो रॉयल्टी को दर्शाता है। लेकिन सच यह है कि हर किसी का खून लाल होता है। तो, भक्ति इस काल में आकर अपना पुराना मीनिंग डिस्कवर करती है, नए कोनोटेशन के साथ।
अब, आपके अपने जीवन में इसका महत्व क्या है? पहली बात तो यह है कि इन कवियों को, खासकर कबीर और तुकाराम को, पढ़ना बहुत महत्वपूर्ण है। वे केवल भक्त नहीं, बल्कि बहुत आला दर्जे के कवि भी हैं। असल में, कोई भी बड़ा कवि फिलोसोफर होता है और कोई भी बड़ा फिलोसोफर कवि होता है।
इन कवियों का काम जीवन के बुनियादी सवालों और एसिस्टेंसियाल विषयों से निपटना है। जैसे युग निर्माण योजना का श्लोक था: “हम बदले जग बदला, हम बदले युग बदला।” यह आधा सच है, क्योंकि केवल आपके बदलने से युग नहीं बदल जाएगा। अगर सोशल सिस्टम बेईमानी को प्रीमियम देता है, तो बेईमानी चलती रहेगी।
व्यवस्था बदलने से मनुष्य अपने आप सुधर जाएगा, यह भी गलत है क्योंकि मनुष्य एक निर्जीव सत्ता नहीं है, वह सजीव सत्ता भी है। वह अस्तित्व का हिस्सा है, उसके साथ इंटरेक्ट करता है। वह केवल व्यवस्था के प्रति रेस्पॉन्ड नहीं करता।
यानी अगर आप इस प्लेट को उठाकर नीचे पटक देंगे, तो वह टूट जाएगी। लेकिन अगर यह मनुष्य या जानवर होता, तो नीचे गिरने से पहले पूरी कोशिश करता कि वह न गिरे। एक कीड़ा भी, अगर आप उसे मसलने की कोशिश करेंगे, तो वह भी कोशिश करके भागने की कोशिश करेगा।
कॉन्शसनेस मींस इंटरवेंशन इन द गिवन सिचुएशन। चेतना का मतलब ही यह होता है। इसलिए ये दोनों बातें सच हैं और यह इनसाइट आपको अपने अनुभव के अलावा जैसे कबीर की प्रसिद्ध पंक्तियां: “मैं कई विधि कथ गंभीरा, भीतर कहो तो जग में लाजे, बाहर कहो तो झूठा लू। मैं कई विधि कथ गंभीरा, भीतर बाहर सबद निरंतर, मैं ही विधि कथ गंभीर।” मैं अगर यह कहूं कि वह परम सत्य मेरे भीतर है तो फिर यह सारा जगत क्या है? मैं इसका अपमान कर रहा हूं, इसको लज्जित कर रहा हूं। मैं अगर यह कहूं कि वह बाहर है तो यह झूठ है क्योंकि तुम उसे अपने भीतर महसूस करते हो। मेरा राम तो मेरे हृदय में निवास करता है।
वास्तविकता क्या है? वास्तविकता भीतर और बाहर के बीच का कांस्टेंट इंटरेक्शन। यह बड़ी अमूर्त फिलॉसफिकल बात हो गई। आप अगर एक ऐसे माहौल में रहें जहां सुबह से शाम तक गालियां दी जाती हैं, सोशल मीडिया का उदाहरण ले लीजिए। जिस तरह की जुबान आजकल के नौजवान लड़के-लड़कियां सोशल मीडिया पर लिखते हैं, वैसी मेरी पीढ़ी के लोग नितांत निजी मित्रों के बीच भी मुश्किल से ही बोलते। यह सच है या नहीं है, चलिए जुबान को मारिए गोली। जिस तरह की वायलेंस दिखती है, विरोध प्रकट करने की जो भाषा और वायलेंस का जिस तरह नॉर्मलाइजेशन हुआ है, यानी आप खुद सोचिए। मैं आपको बताऊं कि अगर अभी यह बातचीत करने के बाद आप कहीं पढ़ें या सुनें कि एक बच्चे के आठ टुकड़े करके लोगों ने खा लिए, आप में से किसी को मिचली नहीं आएगी। खुद मुझे नहीं आएगी क्योंकि हमें आदत पड़ चुकी है। क्रूरता नॉर्मल हो गई है। मैं तो क्रूर नहीं हूं, ठीक है ना? आप क्रूर नहीं हैं, तो आप अपने भीतर तो क्रूर नहीं हुए। आप अपने भीतर सेंसिटिव ही हैं, लेकिन वातावरण ने आपको इतना इनसेंसिटिव जरूर कर दिया है। अब क्रूरता पर आपको वैसी तृष्णा और जिन नहीं होती जैसी होनी चाहिए। इसलिए भीतर और बाहर दोनों के बीच का जो इंटरेक्शन है, उसकी याद लाने वाला कवि आपके लिए यह बात मैंने कबीर की मिसाल से कही। किसी की भी मिसाल से, आप मीराबाई का बहुत मशहूर पंक्ति मुझे बहुत पसंद है: “चाहे कोई बिंद दो, चाहे कोई निंद दो, मैं तो चाल चलूंगी अटी राणा जी मने।”
बदनामी के डर से आप बहुत सारे काम नहीं करते ना? लोग क्या कहेंगे? आप भला काम कर रहे हो तब भी डर लगता है, बुरा काम कर रहे हो तब भी डर लगता है। तो आपका काम सही है या गलत, इससे करना चाहिए, लोग क्या कहेंगे इससे नहीं। यानी मोहल्ले में दंगा हो, किसी एक को पकड़ के पीटा जा रहा है और आप इसलिए ना बीच में बोलें कि अरे इसको आज बचाया तो कल मेरे लोग मुझे गद्दार कहेंगे। तो आप गलती कर रहे हैं। अगर आप कोई बुरा काम करने से इसलिए बचें कि लोग क्या कहेंगे, तो आप अच्छा कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं। लेकिन अंततः फैसला विवेक करेगा।
तो चाहे कोई निंदो, चाहे कोई बिंदो, चलूंगी चाल अपू। मैं तो अपनी अनोखी की चाल चलती रहूंगी क्योंकि बदनामी का डर मुझे लगता ही नहीं। बदनामी मुझे अच्छी लगती है। तो इस तरह की जो कनेक्शंस हैं, इस तरह के जो एसोसिएशंस हैं और ऐसी स्थितियों की कल्पना, यह आपको ताकत देती है, यह आपको रास्ता भी दिखाती है। इसलिए मुझे लगता है कि साहित्य, खासकर के भक्ति का साहित्य, अगर आप अपने भारतीय समाज को देखिए, एक बात और, आखिरी बात मैं कहूंगा। आप अगर मिसाल के तौर पर इंग्लैंड जाएं, तो शेक्सपियर को इंग्लैंड का राष्ट्रीय कवि आज तक कहा जाता है। इंग्लैंड में कोई टैक्सी ड्राइवर, कोई पोर्टर आपको शेक्सपियर को कोट करता नहीं दिखेगा। नाम जानता है शेक्सपियर का, गर्व भी करता है शेक्सपियर पे। शेक्सपियर की साम में आप कोई गुस्ताखी कर दें, तो उसकी भावनाएं आहत हो सकती हैं। लेकिन कोट करता नहीं। बनारस में, हिंदुस्तान के किसी भी नगर में, रिक्से वाला तुलसीदास और कबीरदास को कोट करता है। महाराष्ट्र का रिक्से वाला ज्ञानेश्वर और तुकाराम को कोट करता है। इसका मतलब यह है कि ये कवि केवल क्लासिकल पोएट्स नहीं हैं, बल्कि वे क्लासिकल एज के साथ-साथ हमारे समय के भी बहुत समकालीन हैं। न केवल आपके और मेरे लिए, बल्कि आम लोगों के लिए भी। जिनके नाम पर हम सब अपना करते हैं, ना जनवाद, देश और ये वो। तो मैं और आप तो कबीरदास को नहीं कोट करेंगे। मैं तो करता हूं, लेकिन इंटेलेक्चुअल कहे जाने वाले लोग कबीरदास को नहीं कोट करते, किसी ना किसी यूरोपियन को कोट करने के फेर में रहते हैं। वो अलग बात है। आम आदमी यह लोग आपकी इस समय तक की आम सामाजिक सांस्कृतिक चेतना का अभिन्न अंग हैं।
कई बार ऐसा होता है कि आपको मालूम तक नहीं होता कि आप किसको कोट कर रहे हैं। कवियों की उक्ति आपके मुहावरे का हिस्सा बन जाती है और इसके उलट मुहावरे जो हैं, वे कवियों की उक्ति बन जाते हैं। ऐसे कवियों को जानना, पढ़ना, समझना इसलिए भी जरूरी है कि आप अपने वक्त को, अपने समय को, अपने आसपास की दुनिया को जान सकें। भक्ति कविता पढ़ने और समझने के दो-तीन कारण तो यह हैं।
गौरव तिवारी: एक तो यह बात है कि ह्यूमन एक्जिस्टेंस की जो बहुत सारी इशू हैं, मतलब एक मानव होने की जो समस्याएं हैं या मानव के एक समाज में रहने की समस्याएं हैं, उनमें बहुत सारी समस्याएं हैं जो हर काल की समस्या रही हैं। उनका रूप बदल सकता है, अलग हो सकता है। जैसे युद्ध की समस्या है, तो 2000 साल पहले लोग अलग तरीके से युद्ध करते होंगे, आज अलग तरीके से युद्ध कर रहे होंगे। एक दूसरे के ऊपर हिंसा, साम्राज्यवाद, एक दूसरे से घृणा, मानव के अपने जीवन में भूख कमाने की चाहत, ये सारी समस्याएं तो मानव एक्जिस्टेंस का हिस्सा रही हैं। तो इस तरह की समस्याओं में जो विवेक हमें चाहिए, खुद को बेहतर बनाने में, समाज को बेहतर बनाने में, उसमें जन गोपाल किस तरह से सहायक हैं?
पुरुषोत्तम अग्रवाल: जन गोपाल उसमें जैसे मैंने आपको उदाहरण दिया, जन गोपाल आपको याद दिलाते हैं कि 17वीं सदी में भी एक व्यक्ति ऐसा था, याने जन गोपाल स्वयं या उनके गुरु दादू, जो किसी गलत चीज को गलत कहने के लिए किसी स्क्रिप्चर अथॉरिटी का इंतजार नहीं करते थे। यह जो एक्सरसाइज या विवेक है, यह विवेक के महत्व के साथ-साथ उनके साहस का भी रेखांकन है और हमारे लिए प्रेरणा है। तो इस तरह जन गोपाल मह विवेक की बात कर रहे हैं।
एक बात हमें ध्यान रखनी चाहिए। हम जिसे विवेक कहते हैं या जिसे कहा जाना चाहिए, वह केवल आपकी अपनी परंपरा और सभ्यता तक सीमित नहीं है। विवेक का मतलब होता है अब तक के तमाम मानवीय अनुभवों का जो संचित ज्ञान है, उससे निकलने वाले नतीजे। मिसाल के तौर पर गैस चैंबर हिटलर के जर्मनी में बने, जिनमें यहूदियों को फूंका गया। ऐसे हम यह नहीं समझ सकते कि इसमें हमारे लिए कोई सबक नहीं है। सबक नहीं है या चीनियों के लिए कोई सबक नहीं है, या अमेरिकन के लिए सबक नहीं है, केवल जर्मनों के लिए सबक है। डेमोक्रेसी जिस रूप में आज हम जानते हैं, इसका इन्वेंशन आधुनिक युग में हुआ है। प्राचीन काल की बात अलग है, लेकिन आधुनिक युग में इसका इन्वेंशन यूरोप में हुआ है। इसका मतलब यह नहीं है कि केवल यूरोप में ही डेमोक्रेसी अच्छी चीज है, बाकी जगह बेकार चीज है। तो विवेक की यूनिवर्सलिटी बहुत महत्वपूर्ण है और उसके लिए यह जरूरी नहीं है कि आप किसी चीज को लॉक स्टॉक एंड बैरल अपनाएं।
पूरा साक्षात्कार नीचे देखें: