Original article published in Malayalam. Translated to Hindi by Sandhya Namboothiri
बिना चप्पल पहने टखने के ऊपर साफ क्रीम रंग की लुंगी…
भूरे लाल रंग के ब्लाउज के ऊपर, बाईं ओर, धुला हुआ सफेद तौलिया…
भूरे बाल, बहुत छोटे से कटे हुए…
नन्हे से चेहरे पर झुर्रियां बिखेरने वाली मासूम मुस्कान के बीच से झाँकते कैविटी वाली दांत…।
यह है वल्लियम्मा।
पिछले एक साल से स्री रोग-विज्ञान के ओ.पी. में अक्सर आने वाली अतिथि
पहली बार पेट में अबुर्द के साथ जब से आयी है, तब से ध्यान दे रही हूँ हमेशा बदलते रहते उनके साथ बाईस्टेंडर के तौर पर आये साथियों पर ।
ऑपरेशन के बारे में बात करते वक़्त तो कोई साथी नज़र ही नहीं आते!
“क्या माँ…आपको किसी को साथ लाना चाहिए था ना?
यह एक बड़ा ऑपरेशन है …. रक्तदान करने के लिए लोगों की आवश्यकता होगी ना …”
अगली मुलाकात में ऑपरेशन के बारे में बात करने के लिए उनके साथ आए एक बूढ़े, पतले आदमी ।
“उनके गर्भाशय में एक अर्बुद है और उन्हें ऑपरेशन करने की ज़रूरत है … ऑपरेशन की तारीख बताने से पहले, रक्त तैयार करना होगा। उनके साथ आने वाले परिवार के सदस्य तो हमेशा बदलते रहते हैं।”
“डॉक्टर, मैं इनके इलाके के पार्टी का सदस्य हूँ। वे एक घर में अकेले रहती हैं। इनके कोई भी परिवार वाले, भाई बंधू नहीं है।
इसलिए जब उन्होंने मुझे सूचित किया, तो में जानकारी लेने आया हूँ”।
अम्मा… तो वो सब जो पहले आपके साथ आए थे??
“मेरा अपना कोई नहीं है बिटिया…मेरे साथ यहां तक आने के लिए एक व्यक्ति को एक दिन पाँच सौ रुपय देती हूं। अब तो वे मुझसे और ज़्यादा पैसे मांग रहे है…”
अचानक मैं इसका कोई जवाब नहीं दे पाई
“ऑपरेशन के समय तो कोई साथ में होगा, है ना? क्योंकि यहां महिला वार्ड में हमें अपने साथ रहन के लिए महिलाओं की ज़रूरत है…”
“मैं साथ बैठने के लिए एक महिला का बंदोबस्त कर लूंगी…पहले काम करके मिले कुछ पैसे मैंने बचा कर रखे है जी…”
अस्पताल के गेट से प्रवेश करते ही ठीक बगल में जो चाय की दुकान है, वहां जब मैं सुबह 7:30 बजे चाय और स्पंज केक का एक टुकड़ा खा रही थी, जो की शाम तक ‘मेरी ऊर्जा बनाये रखने का रहस्य’ नाश्ता है, वहाँ सामने हमारी वल्लियम्मा के ‘भाड़े पे लाये साथी’ अपनी खरीदी हुई इडली और चाय बिना विचलित हुए खा रहे थे…
जब मैं उस वॉर्ड में दस बजे राउंड के लिए आयी, तो वहाँ सिर्फ वल्लियम्मा ही खाली पेट ओर भूखी थी …
घाव के दर्द के कारण वे एक तरफ होके लेट भी नहीं पा रही थी।
“मैडम, उनके साथ अस्पताल में रहने वाले उनकी देखभाल तक नहीं करते। खाना खिलाने, बैठने या शौच जाने में मदद करने के लिए तक वे वार्ड में नज़र नहीं आते।
दो दिन से सिस्टर यह अन्याय देख रही है।
वे नीचे चाय की दुकान पर खाना खरीद के खुद तो खा रहे है। फिर इन के लिए खाना क्यों नहीं खरीद कर दे सकते?”
अब तक तो मेरी भी क्षमता खत्म हो गयी थी…
वल्लियम्मा की आँखों के कोने से आँसू की एक बूंद बह निकली…
अर्बुद निकालने के ऑपरेशन के दर्द से ज़्यादा कठोर है दिल से कभी ना अलग होने वाले इस अकेलेपन का दर्द..
“मैंने उन्हें 16 हजार रुपय दिए है, सिस्टरर …”
अगले दिन राउंड्स में उस समय की बड़ी खबर आई… साथ होके भी मदद ना देने वाले वल्लियम्मा के साथी, कोविड वायरस पकड़ने से वहां से चले गए… ..
वल्लियम्मा भी बुखार से लिपटी, पहुंची सीधे कोविड वार्ड में…।
कोविड वार्ड नाम के इस एकांत वॉर्ड में प्यार के लेन-देन के बीच, डॉक्टरों, सिस्टरों और अटेंडरों के साथ अब वल्लियम्मा भी थी।
अकेलापन जाने बगैर …
भूख जाने बगैर …
अस्पताल से घर रिहा हो गयी…
ऑपरेशन के दो सप्ताह बाद हुई वल्लियम्मा की अगली अकेली ओ.पी यात्रा, इस बार मटका-भर पानी कमर पर रखके अकेले घर तक ले जाने से पेट में शुरू हुए दर्द की वजह से।
दवा लेने के नुस्खे के अलावा, अब उन्हें पड़ोसी से ही पीने का पानी लेकर रखने के लिए भी खास निर्देश देकर भेजा।
उसके बाद, सप्ताह में एक बार ओ.पी की सैर होने लगी।
ओ.पी में चलती और हंसती हुई सभी डॉक्टरों से हाथ मिलाती, हाथ जोड़के धन्यवाद कहती और हाल चाल पूछती वल्लियम्मा ..।
“अम्मा…अब तीन महीने बाद ही आना काफी है…”
“मैडम बिल्कुल नहीं..
मैं बीच बीच में आया करूंगी। मेरा अपना कोई नहीं है..आप सब के अलावा…मैं फ़ोन करूंगी तो आप फोन ज़रूर उठाना, ठीक है मैडम…”
पिछले हफ्ते, “नारियल का पानी पी सकती हूँ क्या” पूछके अपने पड़ोसी की मदद से मेरे फोन नंबर पर बुलावा आया।
अब ऑपरेशन के बाद आठ नौ महीने हो गए होंगे।
बिना किसी पीड़ा के बावजूद पिछले दो हफ़्तों में दूर से अस्पताल की यात्रा करते रहने से मुफ्त मिले बुखार की वजह से दखल है वे आज ओ.पी में
पिछली बार क्लास लेने के लिए जाने की वजह से ओ.पि में मुझसे ना मिल पाने के कारण बारह बजे तक मेरा इंतज़ार करके वह वापस चली गयी थी।
अटेंडर दीदी ने पूरे अस्पताल में और आस पास वल्लियम्मा को दो बार खोजा लेकिन वह नहीं मिली…
यह ही नही, पिछले दो दिनों में चौथा फोन कॉल आया ।
“डॉक्टर मैं वल्लियम्मा हूँ। यहाँ ओ.प पहुंच गयी हूँ। आप आओगी ना, मेरी तबीयत खराब है”
“राउंड के बाद मैं अभी आती हूँ, आप बैठो अम्मा”
अपने सीने पर रखे स्टेथोस्कोप से जांज करते समय बिना विचलित हुए सांस अंदर और बाहर ले रही थी वल्लियम्मा, एक आज्ञाकारी बच्ची की तरह..
“वल्लियम्मा, डॉक्टर संध्या आपकी तस्वीर ले रही हैं, ठीक है?”
“तस्वीर ले लो मैडम। हमारे पास केवल आप जैसे लोग ही तो हैं। अगर मैं मर भी जाऊं तो आप मुझे देख सकोगे…”
मास्क को हटाके, सांस छोड़े बगैर, हंसते हुए पोज दे रही थी।
मैने जांज की और दवा लिखी…एक महीने के बाद ही आने की ज़रुरत है, अब इससे पहले कि मैं यह बोल कर बात समाप्त कर पाती, मुझे टोकते हुए उनका वही स्थायी उत्तर सुनने को मिला ।
“ऐसा मत कहो मैडम…
मैं अगले हफ्ते भी आप सभी से मिलने आऊंगी…”
तस्वीर में मुस्कान वाली पोज़ के साथ उदासी के ‘पोज़’ की ज़रूरत नहीं थी…
“तो ठीक है माँ…”
वल्लियम्मा के लिए लिखे नुस्खे को पूरा किया :
…रिव्यू एसओएस … ..
इसका मतलब..
वल्लियम्मा…जब भी ज़रूरत महसूस हो हमारे पास आते रहिये…
हारने पर बाज़ार में बेक़सूर स्वास्थ्यकर्मियों को पीटने वालों के लिए …
हम स्वास्थ्यकर्मियों के खिलाफ ‘अनास्था स्पेशल’ विशेष ब्रेकिंग न्यूज़ अत्यंत पीड़ा उठाके बनाने वाले मीडियाकर्मियों के लिए..
इसे देख ‘विश्व वृद्ध दिवस’ और ‘विश्व भूख दिवस’ जैसे प्रत्येक दिवस, सिर्फ सोशल मीडिया पर मनाने वाले कुछ चंद लोगों के लिए …
यह सब देखकर भी नज़रअंदाज़ करके बैठे लोगों के लिए भी…
शायद आपके पास दूसरों को देने के लिए वक़्त ना हो …
लेकिन हम सभी स्वास्थ्यकर्मियों के पास आपको देने के लिए, अच्छाई से भरा बहुत समय है…।
इसीलिए, वल्लियम्मा आप कभी भी मन हो तो रिव्यू एसओएस के लिए आजाना…
आपकी यह हार्दिक मुस्कान ही है जो इस दौर में भी हमें इस काम में बनाए रखती है।