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कैसे अमेरिका प्रवासी श्रमिकों का उपयोग करता है, उनका शोषण करता है और उन्हें बाहर कर देता है

  • February 10, 2025
  • 1 min read
कैसे अमेरिका प्रवासी श्रमिकों का उपयोग करता है, उनका शोषण करता है और उन्हें बाहर कर देता है

अमेरिकी अर्थव्यवस्था दशकों से प्रवासी श्रमिकों के पसीने और मेहनत पर टिकी हुई है, खासकर कम मजदूरी वाले उद्योगों जैसे कि कृषि, निर्माण और सेवा क्षेत्र में। ये श्रमिक उन उद्योगों को बनाए रखते हैं जो सस्ते और आसानी से बदले जा सकने वाले श्रम पर निर्भर होते हैं, जहां कानूनी सुरक्षा न्यूनतम होती है। उनके योगदान के बावजूद, प्रवासियों को तब बदनाम किया जाता है जब यह राजनीतिक रूप से सुविधाजनक होता है। जब उनका श्रम अब आवश्यक नहीं रह जाता, तो उन्हें “अवैध” करार देकर कड़ी निर्वासन नीतियों का शिकार बना दिया जाता है।

यह श्रम शोषण और निर्वासन का चक्र कोई दुर्घटना नहीं है, बल्कि यह एक सोची-समझी व्यवस्था है जिसे मजदूरी दबाने और श्रमिक अधिकारों को मजबूत होने से रोकने के लिए तैयार किया गया है। प्रवासी श्रमिकों को अस्थिर बनाए रखने के लिए सख्त वीजा नीतियां, कानूनी सुरक्षा की कमी और निर्वासन का लगातार खतरा बनाए रखा जाता है, जिससे मजदूरी कम रहती है और श्रमिक बेहतर परिस्थितियों की मांग करने में असमर्थ होते हैं।

नियोक्ताओं को इस असुरक्षा से लाभ मिलता है, वे अधिकतम उत्पादकता निकालते हैं जबकि उचित वेतन, स्वास्थ्य देखभाल या नौकरी की सुरक्षा जैसी जिम्मेदारियों से बचते हैं। सरकार इस व्यवस्था को प्रवासियों का अपराधीकरण करके लागू करती है, ताकि वे स्थिरता स्थापित करने में असमर्थ रहें और निर्भरता व असुरक्षा के चक्र में फंसे रहें।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप टेक्सास के ईगल पास पर अमेरिकी-मेक्सिको सीमा पर

 

अमेरिका का निर्वासन तंत्र: एक राजनीतिक और आर्थिक हथकंडा।

अमेरिका का निर्वासन तंत्र किसी तटस्थ प्रवर्तन प्रणाली से बहुत दूर है; यह एक गहराई से जड़ें जमा चुकी आर्थिक और राजनीतिक रणनीति है, जो शासक वर्ग के हितों की सेवा करता है, जबकि श्रमिक वर्ग के प्रवासियों को तबाह कर देता है। “अवैध प्रवासी” का तमगा एक सोचा-समझा राजनीतिक उपकरण है, जिसे केवल राष्ट्रवादी भय को भड़काने के लिए ही नहीं, बल्कि संरचनात्मक आर्थिक विफलताओं और अवसरवादी शासन से ध्यान भटकाने के लिए तैयार किया गया है। सीमा सुरक्षा की बयानबाजी के पीछे शोषण, मुनाफाखोरी और व्यवस्थित अमानवीकरण की एक क्रूर मशीनरी काम कर रही है।

 

राजनीतिक ध्यान भटकाने के लिए निर्वासन

जब अमेरिका आर्थिक मंदी या राजनीतिक संकट का सामना करता है, तो प्रवासियों को आसानी से बलि का बकरा बना दिया जाता है। निर्वासन की संख्या बढ़ा दी जाती है, और सरकार इस मुद्दे को राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला बताकर प्रस्तुत करती है, बजाय इसके कि इसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था की प्रवासियों पर निर्भरता के रूप में स्वीकार किया जाए।

इससे नीति-निर्माताओं को विफल आर्थिक नीतियों, कॉर्पोरेट कर छूट और बढ़ती आय असमानता से जनता का ध्यान हटाने का अवसर मिलता है। वर्तमान अमेरिकी प्रशासन ने बिना किसी उचित कानूनी प्रक्रिया के सामूहिक निर्वासन को सही ठहराने के लिए 1798 के एलियन एनमीज़ एक्ट (Alien Enemies Act) को लागू करने का प्रस्ताव रखा है। “सीमा सुरक्षा” की यह अवधारणा वास्तव में राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि नस्लीय और आर्थिक असमानता को मजबूत करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। इन नीतियों के वास्तविक लाभार्थी वे अमेरिकी श्रमिक वर्ग नहीं हैं, जिनकी रक्षा करने का दावा किया जाता है, बल्कि वे कॉर्पोरेट अभिजात्य वर्ग हैं,

जो अनियमित प्रवासी श्रम की अस्थिरता से मुनाफा कमाते हैं। निर्वासन: एक बहु-अरब डॉलर का उद्योग। सामूहिक निर्वासन अब एक बहु-अरब डॉलर का उद्योग बन चुका है। निजी निरोध केंद्र, जैसे कि कोरसीविक (CoreCivic) और जीईओ ग्रुप (GEO Group), प्रवासियों को निर्वासन से पहले हिरासत में रखने के लिए लाभदायक सरकारी अनुबंध प्राप्त करते हैं। किसी व्यक्ति को जितनी अधिक अवधि तक हिरासत में रखा जाता है, इन कंपनियों का मुनाफा उतना ही बढ़ता है।

इन निरोध केंद्रों में अमानवीय परिस्थितियाँ, अत्यधिक भीड़भाड़, चिकित्सा देखभाल की कमी और दुर्व्यवहार की घटनाएं आम हैं। निर्वासन-औद्योगिक परिसर (deportation-industrial complex) का विस्तार सुनिश्चित करता है कि हिरासत की अवधि अनावश्यक रूप से बढ़ाई जाए, जिससे प्रवासी पीड़ा को एक व्यवसाय मॉडल में बदला जा सके। आव्रजन प्रवर्तन में निजी कंपनियों की भागीदारी का मतलब है कि अब निर्वासन नीतियाँ मानवाधिकारों या कानूनी प्रक्रिया से निर्देशित नहीं होतीं, बल्कि मुनाफा कमाने की मानसिकता से संचालित होती हैं।

 

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन

हाल ही में प्रवासियों को सैन्य विमानों का उपयोग करके निर्वासित किया गया, जैसे कि C-17 सैन्य विमान से इक्वाडोर के लोगों को भेजना। यह प्रवासी नियंत्रण के पूर्ण सैन्यीकरण की ओर एक खतरनाक संकेत है। निर्वासन अब केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं रह गए हैं, बल्कि यह एक सुरक्षा-राज्य (Security-State) तंत्र का हिस्सा बन चुका है।

प्रवासियों को नागरिकों के बजाय “शत्रु योद्धाओं” (enemy combatants) की तरह मानकर, यह नीति नागरिक शासन और सैन्य अभियानों के बीच के अंतर को खत्म कर देती है। सैन्य विमानों के जरिए असहाय लोगों को निर्वासित करना प्रवासी समुदायों को एक स्पष्ट संदेश देता है:  उनकी उपस्थिति न केवल अवांछनीय है, बल्कि उन्हें एक राष्ट्रीय खतरे के रूप में देखा जाता है।

अवैध प्रवासियों को ले जाने के लिए अमेरिकी सेना के सी-17 विमान का इस्तेमाल किया जा रहा है

 

राजनीतिक तमाशा बनता निर्वासन।

सार्वजनिक रूप से दिखावटी सामूहिक निर्वासन, जैसे कि बड़े पैमाने पर छापेमारी के दौरान किए गए निष्कासन, एक प्रचार तंत्र के रूप में कार्य करते हैं, जिसे दूर-दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। क्रूर और नाटकीय तरीकों से निर्वासन बढ़ाकर, प्रशासन नागरिक निर्वासन को एक राजनीतिक तमाशे में बदल देता है, जिससे यह धारणा मजबूत होती है कि प्रवासी ही सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार हैं।

 

निर्वासन प्रक्रिया: बढ़ती हिंसा और अमानवीय व्यवहार।

निर्वासन प्रक्रिया अब पहले से कहीं अधिक हिंसक और अपमानजनक हो गई है। प्रवासियों को हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़कर अपराधियों की तरह व्यवहार किया जाता है। रिपोर्टों में निर्वासित प्रवासियों के दर्दनाक अनुभवों का खुलासा हुआ है। हाल ही में 104 भारतीय प्रवासियों को अमेरिका के सैन्य विमान से अमृतसर निर्वासित किया गया, और पूरे 40 घंटे की यात्रा के दौरान वे जंजीरों में जकड़े रहे।

ये कार्रवाइयाँ कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन करती हैं:

  •  सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा (UDHR, 1948) – अनुच्छेद 5 के अनुसार, क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार निषिद्ध है।
  •  नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध (ICCPR) – यह मनमानी हिरासत और अमानवीय व्यवहार पर रोक लगाता है।
  • संयुक्त राष्ट्र यातना विरोधी संधि (CAT) – यह राज्य प्रायोजित क्रूरता की निंदा करता है।

हालांकि अमेरिका इन सभी अंतरराष्ट्रीय समझौतों का हस्ताक्षरकर्ता है, लेकिन निर्वासन नीतियों में वह इन प्रतिबद्धताओं की धज्जियाँ उड़ाता है। प्रवासी न केवल बेड़ियों में जकड़े जाते हैं, बल्कि उन्हें चिकित्सा देखभाल से वंचित किया जाता है और निर्वासन से पहले लंबी अवधि तक हिरासत में रखा जाता है। यह स्पष्ट करता है कि यह केवल प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि योजनाबद्ध दमन के क्रूर कृत्य हैं।

 

भारत की चुप्पी

वर्तमान निर्वासन संकट का सबसे चौंकाने वाला पहलू भारतीय सरकार की निश्‍चलता है, जो अपने नागरिकों के साथ किए गए स्पष्ट मानवाधिकार उल्लंघनों पर भी चुप्पी साधे हुए है। भारतीय प्रवासियों को अमानवीय रूप से जंजीरों में जकड़कर निर्वासित किया गया, लेकिन इसके बावजूद भारत सरकार ने कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं दी।

जबकि मेक्सिको, इक्वाडोर और अन्य देशों ने अपने नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार पर अमेरिका के खिलाफ कड़ा विरोध जताया, भारत ने कोई आधिकारिक विरोध दर्ज नहीं कराया, न कोई राजनयिक दबाव बनाया, और न ही अमेरिका को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश की।

भारत की चुप्पी के पीछे के कारण। भारत की यह खामोशी कई भूराजनीतिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों का परिणाम है। नरेंद्र मोदी सरकार ने खुद को रणनीतिक रूप से अमेरिकी हितों के साथ जोड़ लिया है, विशेष रूप से चीन के खिलाफ मोर्चा बनाने में। मानवाधिकारों के उल्लंघन पर अमेरिका को चुनौती देना, इस रणनीतिक साझेदारी को खतरे में डाल सकता है। इसलिए, भारतीय प्रवासियों के कल्याण से अधिक प्राथमिकता अमेरिका के साथ कूटनीतिक संबंधों को दी जा रही है।

भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर राज्यसभा में बोलते हुए

यह कूटनीतिक समीकरण दिखाता है कि भारत सरकार अपने ही नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने से अधिक अपनी भू-राजनीतिक रणनीतियों को तवज्जो देती है। चयनात्मक आक्रोश और प्रवासी वर्ग भेदभाव। इसके अलावा, भारतीय सरकार का आक्रोश भी चयनात्मक है। पश्चिमी देशों में छात्रों और उच्च-कुशल पेशेवरों से जुड़े मुद्दों पर वह चिंता व्यक्त करती है, लेकिन मजदूर वर्ग के प्रवासियों की दुर्दशा को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देती है।

मजदूर वर्ग के प्रवासियों का योगदान अक्सर कम आंका जाता है, जबकि वे भारत की अर्थव्यवस्था और वैश्विक उपस्थिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रवासी भारतीयों के प्रति दोहरा रवैया। भारत तब अपने प्रवासी समुदाय पर गर्व करता है, जब वे देश को आर्थिक और राजनीतिक लाभ (जैसे कि विदेशी मुद्रा प्रेषण और सॉफ्ट पावर) पहुंचाते हैं।

लेकिन जब कमजोर प्रवासियों को उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, तो सरकार उन्हें पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देती है। अमेरिका की अमानवीय निर्वासन नीतियों पर भारत की चुप्पी। अमेरिका की क्रूर निर्वासन नीतियों को चुनौती देने से इनकार कर भारत अपनी ही जनता के अमानवीकरण को मौन स्वीकृति दे रहा है। यह चुप्पी एक स्पष्ट संदेश देती है: भारतीय प्रवासी तब तक मूल्यवान हैं जब तक वे पैसा भेजते रहते हैं, लेकिन जब उन्हें सुरक्षा की जरूरत होती है, तब वे बेकार समझे जाते हैं।

 

मानवाधिकार संकट

निर्वासन को एक राजनीतिक हथियार बनाना सिर्फ अमेरिका की समस्या नहीं है, बल्कि यह विश्वव्यापी असमानता के तंत्र का हिस्सा है। वही नवउदारवादी नीतियाँ (neoliberal policies), जो लोगों को रोज़गार की तलाश में पलायन करने के लिए मजबूर करती हैं, बाद में उन्हीं को अपराधी बना देती हैं। अगर निर्वासन इसी तरह जारी रहता है, तो यह एक खतरनाक मिसाल स्थापित करेगा। अन्य देश भी इसी तरह की नीतियाँ अपनाने लगेंगे, जिससे हाशिए पर खड़ी समुदायों का सामूहिक निष्कासन अपवाद नहीं, बल्कि एक सामान्य प्रक्रिया बन जाएगा। अमेरिका की वर्तमान निर्वासन नीति: नस्लीय पूंजीवाद का क्रूर स्वरूप अमेरिका की मौजूदा निर्वासन नीति नस्लीय पूंजीवाद (racial capitalism) का क्रूर रूप है, जिसमें प्रवासियों का ज़रूरत पड़ने पर शोषण किया जाता है और फिर सुविधानुसार हटा दिया जाता है। ये नीतियाँ कानून लागू करने के लिए नहीं, बल्कि नियंत्रण, मुनाफ़े और राजनीतिक शक्ति के लिए बनाई गई हैं।

यदि इन निर्वासनों को चुनौती नहीं दी गई, तो वे और भी क्रूर और अमानवीय होते चले जाएँगे।  इस लड़ाई का संबंध केवल आप्रवासन नीति से नहीं, बल्कि एक शत्रुतापूर्ण दुनिया में मानव गरिमा और न्याय के मूल सिद्धांतों की रक्षा से है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को कदम उठाना होगा। प्रभावित देशों की सरकारों को अब मौन दर्शक बने रहने से इनकार करना चाहिए। मानवाधिकार संगठनों को वैश्विक मंच पर इन अत्याचारों को चुनौती देनी होगी। प्रवासी न्याय आंदोलनों को इस अन्याय के खिलाफ अपने संघर्ष को जारी रखना होगा। यह सिर्फ प्रवासियों का मुद्दा नहीं है—यह न्याय, समानता और मानवता की रक्षा की लड़ाई है।


यह लेख मूल रूप से न्यूज़क्लिक में प्रकाशित हुआ है और इसे यहां पढ़ा जा सकता है।

About Author

शिरीन अख्तर

शिरीन अख्तर दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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