चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, लेकिन आधा देश अब भी भूखा

हम दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं, जल्द ही तीसरे नंबर पर पहुँचने वाले हैं, और 2047 तक विकसित देश बनने का सपना देख रहे हैं — लेकिन इस जोश-खुशी को अब ज़मीनी हकीकत से परखने की ज़रूरत है।
यह बात सभी मानते हैं कि हमारी GDP अब $4.2 ट्रिलियन की हो गई है और हम शायद जापान को पीछे छोड़ चुके हैं। अगले कुछ सालों में हम ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को भी पार कर सकते हैं और अगले दशक में $10 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने की ओर बढ़ रहे हैं। यह भी सच है कि हम दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था हैं — जिसकी औसत वार्षिक वृद्धि दर 6.4% है। सरकार का कहना है कि महंगाई में बड़ी गिरावट आई है, हालांकि इस पर सवाल भी उठते हैं।
इस महीने की शुरुआत में जारी वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट बताती है कि भारत में अत्यधिक गरीबी 2011–12 में 27.1% से घटकर 2022–23 में 5.3% रह गई है। यह गिरावट तब आई है जब बैंक ने ‘गरीबी की सीमा’ को $2.15 से बढ़ाकर $3.00 प्रतिदिन कर दिया।
इस नए मापदंड के अनुसार, गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या लगभग 34.4 करोड़ से घटकर लगभग 7.5 करोड़ रह गई है। यह भी सच है कि भुखमरी से मौत की खबरें अब बहुत कम सुनने को मिलती हैं — इसका श्रेय MGNREGA जैसी योजनाओं को जाता है। हाल ही में NITI आयोग की रिपोर्ट में बताया गया कि आय से परे गरीबी भी 2005–06 में 55.34% से घटकर 2019–21 में 14.96% रह गई है।
ये आंकड़े प्रभावित करते हैं और सरकार इन उपलब्धियों पर गर्व भी कर रही है। लेकिन सच यह है कि हमें वाकई “विकसित देश” बनने के लिए अभी लंबा सफर तय करना है।
भारत की आज़ादी के 100 साल पूरे होने तक “विकसित भारत” बनने की राह में कई चुनौतियाँ होंगी — देश के भीतर भी और बाहर भी। भले ही हम चौथी सबसे बड़ी और सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था बन चुके हों, लेकिन सच्चाई यह है कि देश की आधी से ज़्यादा आबादी — करीब 80 करोड़ लोग — अब भी सरकार द्वारा दी जा रही मुफ्त या सस्ती राशन व्यवस्था पर निर्भर हैं। यह ज़रूरी योजना है, लेकिन कोई भी देश इस पर गर्व नहीं कर सकता कि उसकी आधी जनता सरकार की मदद के सहारे जी रही है।
यह साफ है कि सरकार उन लोगों की संख्या घटाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही जो बुनियादी ज़रूरतों के लिए सरकारी मदद पर निर्भर हैं। एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि MGNREGA के तहत काम मांगने वालों की संख्या बढ़ रही है, खासकर शहरों में। इसका मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था पर्याप्त रोज़गार पैदा नहीं कर पा रही, जिससे लोग न्यूनतम वेतन वाली सरकारी नौकरियों की ओर जा रहे हैं। कुछ और भी चिंताजनक संकेत हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि देश में खेती करने वाले मज़दूरों की उम्र अब गैर-कृषि क्षेत्र के लोगों से ज़्यादा है। यानी युवा खेती छोड़कर नौकरी की तलाश में शहरों की ओर जा रहे हैं — लेकिन उन्हें वहाँ भी सफलता नहीं मिल रही।
बढ़ती बेरोज़गारी युवाओं में हताशा फैला रही है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की विकास दर खेती से भी कम है, जो बेरोज़गारी की एक बड़ी वजह है। हम अब भी बुनियादी मानकों पर विकसित देशों से बहुत पीछे हैं। स्वास्थ्य, सफाई, प्राथमिक शिक्षा, नागरिक सुविधाएं, साफ पीने का पानी और पर्याप्त बिजली जैसी सेवाएं आज भी करोड़ों लोगों की पहुँच से बाहर हैं। इन चुनौतियों में एक और बाधा है — समाज में बढ़ती धर्म और जाति आधारित राजनीति। हिंदू-मुस्लिम मुद्दों और जातिगत राजनीति पर चल रही बहसें देश की विकास रफ्तार को धीमा कर रही हैं।
कुछ बाहरी समस्याएं भी चिंता बढ़ा रही हैं — जैसे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से बनी वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश से जारी तनाव। इससे निवेश घट सकता है और रक्षा खर्च बढ़ सकता है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि 6.5% की औसत विकास दर हमें 2047 तक विकसित देश नहीं बना पाएगी। चीन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने यह दर्जा पाने के लिए लगातार 8% से ज़्यादा की दर से विकास किया है।
अंत में, हमें यह भी समझना चाहिए कि दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने की खुशी को हकीकत से जोड़कर देखना होगा। अमेरिका की अर्थव्यवस्था $30 ट्रिलियन से ज़्यादा है, चीन की $19.23 ट्रिलियन के आसपास है। इसके मुकाबले, भारत का GDP $4.2 ट्रिलियन है — जो बताता है कि हमें अभी बहुत दूर जाना है।
यह आलेख मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था तथा इसका हिन्दी अनुवाद अंशिका भारद्वाज ने किया है।
This article was originally published in Punjab Today News and can be read here.