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बिहार 2025: भाजपा के सामने तीन उभरते संकट

  • October 11, 2025
  • 1 min read
बिहार 2025: भाजपा के सामने तीन उभरते संकट

बिहार की राजनीति में बदलाव की बयार अब धीरे-धीरे, लेकिन साफ़ दिखाई देने लगी है। पार्टी दफ़्तरों में पहले जैसी आत्मविश्वास भरी गूंज अब धीमी फुसफुसाहटों और संयमित बेचैनी में बदल गई है। पिछले एक दशक से प्रभुत्व बनाए रखने वाली भाजपा अब ऐसे चुनावी मौसम में प्रवेश कर रही है, जहाँ संदेह की परछाइयाँ उसके अपने ही कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच दिखने लगी हैं।

 

आंतरिक दरारें

पार्टी द्वारा कराया गया एक आंतरिक सर्वेक्षण, जो मूल रूप से एक मूल्यांकन उपकरण के रूप में किया गया था, अब असल में मतदाताओं की नाराज़गी की गहराई को उजागर कर रहा है। वरिष्ठ पदाधिकारियों के अनुसार, लगभग 90 प्रतिशत भाजपा विधायक अपने-अपने क्षेत्रों से नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त कर चुके हैं। इनमें जनसंपर्क की कमी, प्रशासनिक अहंकार और लंबे कार्यकाल से उपजी विरोधी लहर (anti-incumbency) जैसी शिकायतें प्रमुख हैं।

हालांकि ये निष्कर्ष सार्वजनिक नहीं किए गए हैं, लेकिन उनके असर ज़मीनी स्तर पर महसूस किए जा रहे हैं। ज़िला कार्यालयों में अब टिकटों के फेरबदल, “नई चेहरे” लाने और “नुकसान नियंत्रण” की तत्काल ज़रूरत जैसी चर्चाएँ तेज़ हैं। यहाँ तक कि पार्टी के भीतर के लोग भी मान रहे हैं कि विपक्ष की ताकत से ज़्यादा, स्थानीय असंतोष ही असली चुनौती बनता जा रहा है।

“लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाराज़ नहीं हैं। नाराज़गी हमसे है, यहाँ ज़मीन पर,” एक ज़िला संयोजक ने चुपचाप कहा — वो भावना जो अब राज्य के हर कोने से सुनाई देने लगी है।

 

एस.आई.आर. विवाद (SIR Controversy)

भाजपा की बढ़ती बेचैनी में एक और परत जुड़ गई है — मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) को लेकर। चुनाव आयोग द्वारा किए गए इस अभूतपूर्व अभियान में 68.66 लाख नाम हटाए गए और 21.53 लाख नए नाम जोड़े गए। अधिकारियों के अनुसार यह एक “लंबे समय से लंबित प्रशासनिक प्रक्रिया” थी, लेकिन राजनीतिक रूप से यह अब एक बड़ा विवाद बन चुका है।

जिलों में जहाँ मुस्लिम आबादी अधिक है, वहाँ मतदाता नामों की कटौती की दर सबसे अधिक रही। गोपालगंज ज़िले में सर्वाधिक 13.9% नाम हटाए गए, इसके बाद किशनगंज (10.5%), पूर्णिया (9.7%), मधुबनी (8.7%) और भागलपुर (7.8%) का स्थान रहा। नागरिक संगठनों और विपक्षी दलों ने आरोप लगाया है कि सबूत देने का बोझ असमान रूप से गरीबों और वंचित समुदायों पर डाला गया, जिन्हें कई बार दस्तावेज़ जमा करने को कहा गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनाव आयोग को हटाए गए नामों की खोजयोग्य सूची (searchable list) प्रकाशित करने का निर्देश इस सार्वजनिक चिंता की गंभीरता को दर्शाता है।

भाजपा के लिए यह प्रशासनिक प्रक्रिया एक अप्रत्याशित राजनीतिक असर लेकर आई है। सत्यापन के लिए की जा रही कॉलों के दौरान सर्वे टीमों को अपने ही पारंपरिक समर्थक वर्ग से असामान्य नाराज़गी का सामना करना पड़ा। लंबे समय से भाजपा को वोट देते आ रहे मतदाता इस बात से खिन्न हैं कि उन्हें “अपनी नागरिकता दोबारा साबित” करनी पड़ी। यह नाराज़गी अब तक कम नहीं हुई है।

 

आरोप और प्रति-आरोप

इस राजनीतिक उथल-पुथल के बीच, प्रशांत किशोर (जिन्हें राजनीतिक हलकों में अक्सर पीके कहा जाता है) ने बिहार में भाजपा नेतृत्व पर सीधा हमला बोलते हुए माहौल को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की है। अपने बयानों की एक श्रृंखला में, उन्होंने उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी, दिलीप जायसवाल और मंगल पांडे सहित कई वरिष्ठ नेताओं पर गहरे स्तर पर जमी भ्रष्टाचार की संस्कृति फैलाने का आरोप लगाया है। किशोर ने इन नेताओं की गिरफ्तारी, जांच और इस्तीफे की माँग की है।

भाजपा की प्रतिक्रिया इस बार आश्चर्यजनक रूप से संयमित रही है। पूर्व केंद्रीय मंत्री आर.के. सिंह, जो हाल के महीनों में बिहार भाजपा नेतृत्व के सबसे मुखर आलोचक रहे हैं — और जिनके पार्टी छोड़ने की अटकलें भी लगाई जा रही हैं — ने हाल ही में कहा कि “जिन पर आरोप हैं, उन्हें जवाब देना चाहिए, वरना यह पार्टी की साख को नुकसान पहुँचा सकता है।” बिहार की राजनीतिक भाषा में चुप्पी कभी निष्पक्ष नहीं होती — यह असहजता का संकेत होती है।

इसी बीच, प्रशांत किशोर के वित्तीय खुलासों ने उनके ईमानदारी अभियान को और जटिल बना दिया है। किशोर ने बताया कि उन्होंने पिछले तीन वर्षों में ₹241 करोड़ की कंसल्टेंसी फीस अर्जित की, जिसमें से सिर्फ ₹11 करोड़ उन्होंने नवयुग कंस्ट्रक्शन से दो घंटे की सलाहकार सेवा के लिए प्राप्त किए। दिलचस्प यह है कि यह वही कंपनी है जिसने अतीत में भाजपा को दान दिया था। किशोर का कहना है कि यह लेन-देन पूरी तरह वैध और दस्तावेज़ित है, जबकि भाजपा ने इन सलाहकार सेवाओं की विश्वसनीयता और औचित्य पर सवाल उठाया है। गौरतलब है कि भारत की कई सत्तारूढ़ पार्टियों को भी इतनी बड़ी राशि के चंदे इस अवधि में नहीं मिले।

इस पूरे विवाद ने चुनावी अभियान के नैतिक स्वरूप को धुंधला कर दिया है। किशोर खुद को “व्यवस्था को चुनौती देने वाले परिवर्तनकारी” के रूप में प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनके वित्तीय व्यवहार के विवरण अब उसी सार्वजनिक बहस का हिस्सा बन गए हैं — जिससे उस नैतिक बढ़त (moral high ground) की दूरी कम हो गई है, जिसे वे स्थापित करना

 

विपक्ष की सोची-समझी चुप्पी

राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के लिए बिहार का चुनावी परिदृश्य इस समय अपेक्षाकृत स्थिर दिख रहा है। पार्टी का मुख्य वोट बैंक अपने पारंपरिक गढ़ों में लगभग जस का तस बना हुआ है। राजद नेतृत्व ने एक संतुलित रणनीति अपनाई है — भाजपा के आंतरिक मतभेदों और प्रशासनिक विवादों को ही मीडिया की सुर्खियों में रहने दिया जाए, जबकि वे खुद कम बोलकर ज़्यादा हासिल करने की नीति पर चल रहे हैं।

दूसरी ओर, कांग्रेस ने अपने प्रचार अभियान को “वोट चोरी” के मुद्दे पर केंद्रित कर दिया है। पार्टी ने एस.आई.आर. विवाद को मताधिकार से वंचित करने (disenfranchisement) के बड़े प्रश्न से जोड़ते हुए भाजपा पर हमला बोला है। हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण में “चुनावी निष्पक्षता” को राज्य का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बताया गया है।

यह अभी देखना बाकी है कि कांग्रेस इस नैरेटिव को कितनी देर तक बनाए रख पाती है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि इस मुद्दे ने उसे लंबे समय बाद राजनीतिक गति (traction) प्रदान की है।

 

रणनीतिक दोराहा (A Strategic Crossroads)

पटना में भाजपा की हाल ही में हुई तीन दिवसीय रणनीति बैठक में चर्चाएँ देर रात तक चलीं। अब उम्मीदवार चयन केवल संगठनात्मक निर्णय नहीं, बल्कि संकट प्रबंधन का हिस्सा बन गया है। नेतृत्व इस दुविधा में है कि क्या बड़े पैमाने पर उम्मीदवारों में बदलाव से विरोधी लहर (anti-incumbency) को कम किया जा सकता है — या यह कदम पार्टी के स्थानीय गुटों को नाराज़ कर देगा।

इसी के साथ, पार्टी नेतृत्व प्रवासन, कल्याण योजनाओं की डिलीवरी और सुरक्षा जैसे अपने पुराने, सफल मुद्दों की ओर चर्चा का रुख मोड़ने की कोशिश कर रहा है। लेकिन इस रणनीतिक बदलाव का समय और विश्वसनीयता, दोनों ही अभी अनिश्चित हैं।

बिहार का राजनीतिक इतिहास यह दिखाता है कि यहाँ स्थायी लगने वाली सरकारें भी तब डगमगा गईं, जब स्थानीय ग़ुस्सा किसी बड़े सामाजिक या राजनीतिक नैरेटिव से जुड़ गया। भाजपा की मौजूदा स्थिति कुछ वैसी ही प्रतीत होती है — केंद्र में मज़बूत, लेकिन ज़मीनी स्तर पर बेचैनी बढ़ती हुई।

आज भाजपा तीन मिलते-जुलते संकटों का सामना कर रही है —

  1. आंतरिक असंतोष,
  2. एस.आई.आर. विवाद से उपजा जनविरोध, और
  3. भ्रष्टाचार के आरोप, जिनका पार्टी अभी तक ठोस जवाब नहीं दे पाई है।

वहीं, प्रशांत किशोर के लिए चुनौती है कि वे अपने ऊपर चल रही जाँच और सवालों के बीच अपनी विश्वसनीयता बनाए रखें।
और विपक्ष के लिए चुनौती है — इस अनुकूल माहौल को ठोस जनआंदोलन में बदलना।

जैसे-जैसे चुनावी गति तेज़ हो रही है, बिहार की राजनीति अब “महागठबंधन बनाम भाजपा” की सीधी लड़ाई से हटकर इस सवाल पर केंद्रित होती जा रही है — कौन-सा नैरेटिव जनता की याद में टिकेगा। ज़मीन धीरे-धीरे, लेकिन स्पष्ट रूप से खिसक रही है।

 

एक उभरता त्रिकोणीय मुकाबला (An Emerging Triangular Contest)

चुनावी माहौल गरमाते ही, बिहार का चुनावी परिदृश्य अब त्रिकोणीय मुकाबले की ओर बढ़ता दिख रहा है। जन सुराज के नेतृत्व में बना तीसरा मोर्चा अब एक संभावित परिवर्तनकारी (disruptor) के रूप में उभर रहा है। शुरुआती राजनीतिक आकलन और सर्वेक्षणों में जन सुराज का अनुमानित मत प्रतिशत 8% से 12% के बीच बताया गया है — ख़ासकर उन इलाकों में, जहाँ प्रशांत किशोर की टीम पिछले दो वर्षों से सक्रिय रही है।

पीके के हालिया साक्षात्कारों से संकेत मिलता है कि उनकी पार्टी की रणनीति क्रमबद्ध तरीके से भाजपा, फिर जदयू, और अंत में राजद के वोट बैंक को केंद्रित रूप से कमजोर करने की है। यह रणनीति पहले शहरी और सवर्ण भाजपा गढ़ों को, फिर जदयू के अति पिछड़ा वर्ग (EBC) इलाकों को निशाना बनाने पर केंद्रित है।

हालांकि, यह स्थिति बेहद गतिशील है। असली नतीजा इस पर निर्भर करेगा कि —

  • उम्मीदवार चयन कैसा होता है,
  • स्थानीय गठबंधन कैसे बनते हैं, और
  • क्या जन सुराज चुनाव के पूरे दौर में अपनी संगठनात्मक ऊर्जा बनाए रख पाता है या नहीं।

अभी सभी दलों की टिकट घोषणाएँ बाकी हैं, जो आगे चलकर दलबदल, स्थानीय समीकरणों और सीट-स्तर के सामरिक समझौतों को जन्म दे सकती हैं — और यह सब मिलकर पूरे चुनावी परिदृश्य को नया रूप दे सकते हैं।

बिहार हमेशा से सर्वेक्षणों और राजनीतिक भविष्यवाणियों को चुनौती देता आया है। यदि इस बार चुनाव पारदर्शी और प्रशासनिक हस्तक्षेप से मुक्त रहे, तो यह मुकाबला असामान्य रूप से कड़ा और त्रिकोणीय हो सकता है — जहाँ जन सुराज भले ही अधिक सीटें न जीते, पर कई क्षेत्रों में चुनावी नतीजों की दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

About Author

डीआर दुबे

डीआर दुबे दिल्ली स्थित सामाजिक-राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं|

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