इस संक्षिप्त लेकिन गहराई से भरे विश्लेषण में राजनीतिक विश्लेषक गौरव तिवारी भारत में चुनावी गड़बड़ियों के ऐतिहासिक पहलुओं को सामने लाते हैं और यह दिखाते हैं कि हाल के वर्षों में,खासतौर पर धन-सम्पन्न भाजपा के दौर में, ये चालें कितनी जटिल और संगठित हो गई हैं। राहुल गांधी द्वारा उठाए गए “वोट चोरी” के हालिया आरोपों को केंद्र में रखते हुए, यह लेख आंकड़ों, अनुभवों और प्रणालीगत कमजोरियों के ज़रिए यह तर्क देता है कि इन आरोपों को केवल शक की नज़र से देखना लोकतंत्र की गहराई को नज़रअंदाज़ करना है।
जब आपका वोट आपसे पहले पड़ जाए
करीब बीस साल पहले मैं अपने मामाजी के साथ वाराणसी के एक मतदान केंद्र गया था। हम दोपहर तीन बजे पहुँचे, लेकिन वहाँ जाकर पता चला कि उनका वोट पहले ही डाला जा चुका था। मामाजी, जो सरकारी नौकरी में थे, ने वहाँ मौजूद अधिकारी से पूछा कि यह गड़बड़ी कैसे हुई। अधिकारी चुपचाप खड़ा रहा और बूथ पर बैठे एजेंटों की ओर देखने लगा—जो सभी हमें निजी तौर पर जानते थे। उनमें से एक को शायद उम्मीद नहीं थी कि मामाजी मतदान करने आएंगे।
मामाजी ने शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया पूछी, लेकिन उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि शायद उन्हें शिकायत करने का मौका नहीं मिलेगा। यह घटना शायद अकेली थी, लेकिन इससे यह साफ़ हुआ कि अगर निगरानी न हो, तो चुनावों में गड़बड़ी आसानी से हो सकती है।
कई लोगों का, जिनमें वरिष्ठ नेता भी हैं, यह मानना है कि राहुल गांधी द्वारा हाल ही में उठाया गया “वोट चोरी” का मुद्दा, उसी तरह की घटनाओं का एक रूप है, जैसा मेरे मामाजी ने उस दिन अनुभव किया था।
वर्तमान आरोप क्या हैं?
7 अगस्त की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि वोटरों की सूची (इलेक्टोरल रोल) में गड़बड़ी की गई है ताकि चुनावी नतीजों को प्रभावित किया जा सके। उन्होंने बेंगलुरु सेंट्रल में 2024 लोकसभा चुनाव से पहले वोटर लिस्ट में हुए बदलावों के कुछ तथ्य भी साझा किए।
महाराष्ट्र में कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन—जहाँ पार्टी को सिर्फ 50 सीटें मिलीं जबकि बीजेपी को 288 में से 235 सीटें मिलीं—के बाद कांग्रेस नेताओं ने वोटर लिस्ट में गड़बड़ियों की जांच तेज़ कर दी।

इसके बाद से राहुल गांधी ने अपनी मुहिम को सीधे जनता तक पहुँचाया, और बिहार में “वोटर अधिकार यात्रा” शुरू की। इस यात्रा का समय भी रणनीतिक रूप से चुना गया है, क्योंकि राज्य में नवंबर-दिसंबर 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं।
कई लोग राहुल गांधी के इन आरोपों को गंभीरता से लेते हैं और मानते हैं कि वोटर लिस्ट में गड़बड़ियाँ हैं। लेकिन कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं कि क्या ऐसी गड़बड़ियाँ वाकई चुनावी नतीजों को बदल देती हैं।
यह शक वाजिब है। लेकिन यह एक अहम बात को नज़रअंदाज़ करता है—कि आज के दौर में चुनावी गड़बड़ी किस तरह से की जाती है।
चुनावी गड़बड़ी की असली तस्वीर
चुनावों में गड़बड़ी कई ऐसे तरीकों से की जा सकती है, जिनके सामने मामाजी की वाराणसी वाली घटना मामूली लग सकती है:
- सही वोटरों को हटाना:
बूथ स्तर के अधिकारी जानबूझकर उन वोटरों का नाम हटा सकते हैं जो किसी खास पार्टी के खिलाफ वोट डाल सकते हैं। हाँ, वोटर अपनी स्थिति ऑनलाइन देख सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें यह जानकारी होनी चाहिए, इंटरनेट होना चाहिए, और सरकारी कर्मचारियों से लड़ने की हिम्मत और साधन भी चाहिए—जो हर किसी के पास नहीं होते। - गलत लोगों को जोड़ना:
कुछ अधिकारी ऐसे लोगों को वोटर लिस्ट में जोड़ देते हैं जो उस इलाके में रहते ही नहीं। जैसे—लखनऊ का एक निवासी बेंगलुरु में भी रजिस्टर पाया गया, जिसे चुनाव आयोग की हालिया नोटिसों ने भी माना है। पार्टी कार्यकर्ता हर घर जाकर यह नहीं जांच सकते कि कौन कहाँ रहता है, इसलिए इस तरह की गड़बड़ी पकड़ना बेहद मुश्किल है। - वोट डालने से रोकना:
अधिकारियों द्वारा उन बूथों की पहचान की जा सकती है जहाँ किसी खास पार्टी को ज़्यादा समर्थन मिलता है, और वहाँ वोटरों के लिए बाधाएँ खड़ी की जा सकती हैं। ऐसा आरोप नवंबर 2024 में उत्तर प्रदेश के कुंदरकी उपचुनाव में भी लगाया गया था। - गिनती में हेरफेर:
कई बार जितने वोट डाले गए, उतने गिने नहीं जाते। हरियाणा की एक पंचायत चुनाव में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर दोबारा गिनती हुई, जिसमें पता चला कि जो उम्मीदवार हार गया था, असल में वही जीता था। लेकिन ज़्यादातर उम्मीदवार इतने लंबे कानूनी संघर्ष नहीं झेल सकते। - फर्ज़ी वोटिंग का पुराना तरीका:
पहले इसे “बूथ कैप्चरिंग” कहा जाता था। अब यह तरीका थोड़ा छिपा हुआ है। कई बार वोटर को मतदान से पहले ही उंगली पर स्याही लगी मिलती है, या पता चलता है कि कोई और उनके नाम से वोट डाल चुका है। कांग्रेस नेता सी. पी. जोशी की 2012 की हार को राजस्थान हाई कोर्ट ने पलट दिया था क्योंकि एक ही व्यक्ति ने कई बार वोट डाले थे।

राहुल गांधी के खास आरोप
राहुल गांधी ने वोटर लिस्ट में गड़बड़ी के पाँच खास तरीकों की पहचान की है:
- एक ही व्यक्ति के नाम पर कई वोटर कार्ड
- फर्जी या गलत पते
- एक ही पते पर बड़ी संख्या में वोटर रजिस्टर होना
- गलत या अमान्य फोटो
- फॉर्म-6 का गलत इस्तेमाल (जिससे नया वोटर रजिस्टर होता है)
इन सभी तरीकों का मकसद एक ही होता है—ऐसे लोगों को वोटर लिस्ट में जोड़ना जो असल में वोट डालने के योग्य नहीं हैं, ताकि फर्जी वोटिंग की जा सके।
यह सवाल उठना वाजिब है कि क्या जिनके पास डुप्लीकेट वोटर कार्ड हैं, वे वाकई दो बार वोट डालते हैं? क्या अपात्र वोटर सच में यात्रा करके वोट डालते हैं? और अगर ऐसा होता है, तो बूथ पर मौजूद एजेंट इसे पकड़ क्यों नहीं पाते?
इन सवालों के पीछे दो बड़ी मान्यताएँ होती हैं:
- चुनाव अधिकारी निष्पक्ष रहते हैं
- हर पार्टी के पास बूथ पर मजबूत और सतर्क एजेंट होते हैं
लेकिन अगर इनमें से कोई भी मान्यता टूट जाए—और आजकल दोनों ही कई बार टूटती हैं—तो गड़बड़ी करने वाले अधिकारी पार्टी कार्यकर्ताओं को अपात्र वोटरों की ओर से वोट डालने की छूट दे सकते हैं, बिना किसी सख्त निगरानी के।
संसाधनों की सच्चाई: जब सैद्धांतिक बातें ज़मीनी हकीकत बन जाती हैं
चुनावी निष्पक्षता की बहस तब और जटिल हो जाती है जब हम संसाधनों के असमान वितरण को देखें। 2023–24 में, देश की छह प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों को मिली कुल घोषित चंदे की राशि में से लगभग 75% अकेले भाजपा को प्राप्त हुई।
31 मार्च 2024 तक भाजपा के पास नकद और बैंक बैलेंस में ₹7,113.80 करोड़ थे—जो कांग्रेस की ₹857.15 करोड़ की राशि से 8.5 गुना ज़्यादा है।
यह अंतर सिर्फ विज्ञापन खर्च तक सीमित नहीं है। फंड की कमी का असर पार्टी संगठन की मजबूती, बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं की तैनाती और चुनावी तैयारी पर भी पड़ता है। उदाहरण के तौर पर, 2023 के उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस वाराणसी के सभी 100 वार्डों में उम्मीदवार तक नहीं उतार पाई—जबकि यह उसके प्रदेश अध्यक्ष अजय राय का गृह ज़िला है। जब उम्मीदवार ही नहीं मिलते, तो हर बूथ पर एजेंट तैनात कर पाना कल्पना से अधिक कुछ नहीं।

क्षेत्रीय दलों की स्थिति और भी कठिन है | उत्तर प्रदेश में सात साल से सत्ता से बाहर समाजवादी पार्टी लगातार संसाधनों की कमी से जूझ रही है। दूसरी ओर, भाजपा जैसे संसाधन-संपन्न दल के लिए “फ्लोटिंग वोटर्स”—ऐसे कार्यकर्ता जो विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों और राज्यों में चुनावी चरणों के अनुसार यात्रा कर सकें—को संगठित करना एक व्यावहारिक रणनीति बन जाती है।
यह असमानता सिर्फ चुनावी प्रतिस्पर्धा को नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बुनियाद को भी प्रभावित करती है। जब संसाधन ही पक्षपातपूर्ण हों, तो निष्पक्षता की उम्मीद कहाँ टिकती है?
जब मामूली अंतर मायने रखता है
कई व्यवस्थाओं में 2–5% की त्रुटि दर को सामान्य माना जा सकता है। लेकिन चुनाव ऐसी व्यवस्था नहीं है जहाँ मामूली गड़बड़ी को नज़रअंदाज़ किया जा सके।
उत्तर प्रदेश की एक औसत विधानसभा सीट में लगभग 4 लाख वोटर होते हैं। वहाँ सिर्फ 2% का अंतर यानी 8,000 वोट—किसी भी उम्मीदवार की जीत या हार तय कर सकता है। लोकसभा सीटों में जहाँ वोटरों की संख्या 20 लाख तक पहुँचती है, वही 2% अंतर 40,000 वोटों का होता है।
ऐसे ही अंतर पर कई सीटों का फैसला होता है—और इन्हीं फैसलों से तय होता है कि अगले पाँच साल तक शासन किसके हाथ में रहेगा।
यहाँ सवाल सिर्फ गणना का नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद का है। जब इतने छोटे अंतर से सत्ता बदल सकती है, तो हर वोट की शुद्धता और हर प्रक्रिया की पारदर्शिता बेहद ज़रूरी हो जाती है।
संस्थागत समस्या: जब गड़बड़ी व्यवस्था का हिस्सा बन जाए
करीब दो दशक पहले वाराणसी के एक मतदान केंद्र पर मामाजी के साथ जो हुआ, वह आज की जटिल चुनावी गड़बड़ियों की एक सादा झलक थी। उस समय वहाँ के प्रिसाइडिंग ऑफिसर ने मामाजी को सुझाव दिया कि वे किसी ऐसे व्यक्ति के नाम पर वोट डाल दें जो शायद वोट देने आए ही न।
आज की तस्वीर ज़्यादा जटिल है, लेकिन मूल समस्या वही है। जब नौकरशाही राजनीतिक नेतृत्व के साथ खुलकर जुड़ने लगे और पार्टियों के बीच संसाधनों का अंतर लगातार बढ़ता जाए, तो मतदान के दिन की गड़बड़ियाँ स्थानीय जुगाड़ नहीं, बल्कि केंद्रीय स्तर पर प्रबंधित योजनाएँ बन जाती हैं।
ऐसी बुनियादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया किसी पार्टी की ताकत या संसाधनों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। व्यवस्था को खुद ही निष्पक्षता सुनिश्चित करनी चाहिए। लेकिन हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह ज़िम्मेदारी राजनीतिक दलों पर भी डाल दी, जो गलत है।

एक स्वस्थ लोकतंत्र में, सीमित संसाधनों वाला स्वतंत्र उम्मीदवार भी जीतने की वास्तविक संभावना रखता है। वरना सत्ता बदलने के लिए जनता के भीतर असंतोष की सुनामी उठनी पड़ती है।
यहाँ सवाल यह नहीं है कि हर चुनावी गड़बड़ी का आरोप सही है या नहीं। असली सवाल यह है कि क्या हमारी चुनावी व्यवस्था इतनी मज़बूत है कि वह बिना किसी पार्टी के धनबल के प्रभाव के भी निष्पक्ष रूप से काम कर सके। और फिलहाल, इसका जवाब जितना स्पष्ट है, उतना ही असहज भी, कम से कम उस लोकतंत्र के लिए जो सच में काम करता हो।
यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था और इसका हिन्दी अनुवाद रुचिका त्रिपाठी ने किया है।



